गांवों में शिक्षा (Hindi Essay Writing)

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गांवों में शिक्षा


गांव भारतीय सभ्या-संस्कृति की रीढ़ और परंपरागत केंद्र रहे हैं। आज बीसवीं सदी के इस अंतिम चरण में भी भारत को गांव-संस्कृति और कृषि-प्रधान देश ही माना जाता है। वास्तव में विशुद्ध भारतीय सभ्यता-संस्कृति का जन्म आश्रमों, बनों और गांवों में ही हुआ है। आज भी उस सभ्यता-संस्कृति के जो थोड़े-बहुत अंश बचे हुए या सुरक्षित कहे जा सकते हैं, वे गांवों में ही दिखाई देते हैं। इन मूल बातों को पहचानकर महात्मा गांधी ने बहुत पहले कह दिया था कि गांवों के विकास और उन्नति के बिना भारत की स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं होगा। भारत की स्वतंत्रता को वास्तविक और व्यापक बनाने के लिए ही गांधी जी ने स्वतंत्रता-आंदालनों को ग्रामोन्मुख बनाया था। गांवों के निवासियों को जागृत करने के लिए साबरमती और सेवाग्राम जैसे आदर्श ग्राम तो स्थापित किए ही थे। तालीमी संघ, बुनियादी शिक्षा जैसी कुछ शिक्षण-संस्थांए भी स्थापित की थीं, ताकि ग्राम-जन शिक्षा प्राप्त कर एक तो अपना महत्व, अपने अधिकार और कर्तव्य पहचान सकें, दूसरे राष्ट्रीय विकास-धारा के साथ जुड़ सकें। वे शिक्षा प्राप्त कर कृषि आदि के उपयोग के लिए सभी प्रकार के सुधरे साधन भी अपना सकें। जिससे गांव-संस्कृति प्रधान भारत वास्तविक स्वतंत्रता एंव सुख-समृद्धि का अनुभव कर सके। पर क्या स्वतंत्रता प्राप्ति के पचास वर्षों बाद भी ऐसा संभव हो सका है? खेद के साथ ‘नहीं’ ही कहने की बाध्यता आज भी बनी हुई है। स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले भारतीय गांव शिक्षा के नाम पर प्राय: अछूते और कोरे हुआ करते थे। वहां शिक्षा का प्रचार-प्रसार बहुत कम था। पांच-दस गांवों में कहीं एक स्थान पर प्राथमिक स्कूल होता, जिसमें एक-आध शिक्षक नियुक्त होता। स्कूल प्राय. खुले-स्थानों, बड़ के बड़े पेड़ों के नीचे ही लगा करते थे। कहीं-कहीं कच्ची-पक्की इमारते भी होती। पर वे लोगों का ध्यान बहुत कम आकर्षित कर पाते। उसके बाद दस-पंद्रह गावोंं में कहीं पर एक माध्यमिक (मिडिल) स्कूल होता और बीस-पच्चीस गांवों में एकाध हाई स्कूल/कॉलेज आदि का तो नितांत अभाव हुआ करता था। वे बड़े-बड़े शहरों ही हुआ करते थे और वहां गांव का शायद एक प्रतिशत भी पढऩे के लिए नहीं पहुंच पाता था। शिक्षा के प्रति आज की सी जागरुकता भी तब नहीं थी। एक प्रकार से यह मानसिकता बन चुकी थी कि पढऩा-लिखना समय को नष्ट करना है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शिक्षा के प्रति जागरुकता का उदय तो हुआ, परंतु आज तक इसे समग्र संपूर्ण नहीं कहा जा सकता। गांवों में आज भी शिक्षा के प्रति वह सम्मान विकसित नहीं हो पाया, जो नगरों-महानगरों में दिखाई देता है। वहां का संपन्न वर्ग ही प्राय: बच्चों को शिक्षा दिला पाता है। या निम्न वर्गों के महत्वकांक्षी बहुत थोड़े लोग सही रूप में शिक्षा पाकर अपना भविष्य उजागर करना चाहते हैं। क्योंकि वर्तमान शिक्षा-प्रणाली साक्षरता और शिक्षित होने के दंभ के सिवाय व्यवहार के स्तर पर कुछ दे नहीं पाती, इस कारण वहां चारों ओर सुना जा सकता है कि क्या मिलता है पढ़-लिखकर? छोरे-छोरियों को अपनी पुश्तैनी काम-धंधे करने की आदत ही बिगाड़ती है। कौन-सा उन्होंने जिस्ट्रेट बन जाना है? मतलब कि वहां भी शिक्षा को रोटी-रोजी से जोडक़र देखा जाने लगा है और वह सबको मिल नहीं पाती, अत: वास्तविक शिक्षा की ओर वहां की मानसिकता में जागृति आज भी नहीं आ पाई। यों कहने को अज प्राय: सभी स्तरों पर गांव में भी शिक्षा-स्थानों का विस्तार हो चुका है। प्रारंभिक, माध्यमिक, उच्चतर माध्यमिक, स्कूल और कॉलेज भी गांवों में या उनके आस-पास उपलब्ध हैं। प्रौढ़ शिक्षा का भी प्रबंध है, फिर भी अधिकांश ग्राम जन आज भी अनपढ़ और अशिक्षित हैं। वस्तुत: वहां तक संस्थाओं का विस्तार तो कर दिया गया है, पर व्यवस्था ठीक नहीं। वहां के अध्यापक स्कूलों आदि में बहुत कम आते हैं। वे अपने घर की खेती-बाड़ी में व्यवस्त रहते हैं। बस-वेतन लेने तो स्कूल आदि में आया करते हैं, आकर भी पढ़ाने में कम रुचि लेते हैं। राजनीति और अपने अन्यान्य धंधों में लगे रहते हैं। परिणाम यह होता है कि अधिकांश छात्र प्राइमरी मिडिल आदि से आगे नहीं बढ़ पाते। बाकी के अधिकांश दसवीं-बारहवीं तक चल पाते हैं, कॉलेजों तक बहुत कम पहुंच पाते हैं। आर्थिक दुरावस्था तो इस कारण है ही, चेतना का भी सर्वथा अभाव है। वहां भी शिक्षा की रोटी-रोजी के साथ जोड़ दिया गया है। वह भी नौकरियों से प्राप्त होने वाली रोटी-रोजी साथ, न कि सुशिक्षित होकर खेती-बाड़ी, पारंपरिक या नए उद्योग धंधे अपनाकर रोटी-रोजी कमाने के सााि। निश्चय ही गांव के जिन परिवारों ने समूचित शिक्षा की ओर ध्यान दिया है, प्रत्येक स्तर पर उन्होंने प्रगति भी की है। आज शिक्षा के कारण ही ग्राम जन अनेक प्रकार की अच्छी नौकरियों में भी हैं और अपने उद्योग-धंधों, परंपरागत कायौ्रं का नवीनीकरण कर या खेती-बाड़ी का सुधार कर काफी उन्नत भी हुए हैं। पर अभी तक वैसा वातावरा नहीं बन सका, जिसकी कल्पना गांधी जी ने की थी, या जिसके आलोक में गांवों में शिक्षा का विस्तार किया गया है। उस प्रकार के वातावरण के निर्माण की बहुत आवश्यकता है। जो हो, आज गांव शिक्षा के मामले में पहले से निश्चय ही काफी आगे बढ़ चुका है। वहां का वासी शिक्षा का वास्तविक अर्थ और महत्व भी समझ रहा है। अत: जिस प्रकार भारतीय गांव अन्यान्य बातों में प्रगति कर रहे हैं वैसे शिक्षा-क्षेत्र में भी होगा। इस बात की निकट भविष्य में उचित आशा की जा सकती है। स्कूलों-कॉलेजों में ग्रामीण छात्रों की बढ़ती संख्या-एक सुखद लक्षण कहा जा सकता है। ग्रामांचलों में स्कूल-कॉलेजों का स्थापिन होते जाना भी एक शुभ लक्षण ही कहा जाएगा।

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