स्वतंत्र भारत में अनेक प्रकार के जो राष्ट्रीय पर्व, त्योहार और उत्सव मनाए जाते हैं, स्वतंत्रता-दिवस कई कारणों में उन सब में एक अत्याधिक महत्वपूर्ण, प्रेरणादायक और महान है। यह महान दिन हमें याद दिलाता है कि स्वतंत्रता-प्राप्ति के लिए कितने-कितने त्याग और बलिदान करने पड़ते हैं। स्वतंत्रता का मूल्य प्राणों की आहुति देकर चुकाना पड़ता है। इसके लिए अनेक प्रकार के दुख और कष्ट उठाने पड़ते हैं। तब कहीं जाकर कोई देश अथवा राष्ट्र अपने मुक्त आकाश पर अपने स्वतंत्र राष्ट्र की महानता का प्रतीक ध्वज फहरा सकता है। अपने राष्ट्रीय ध्वज को फहराता देखकर गर्व एंव गौरव के उन्नत भाव से भरकर उतसव का आनंद प्राप्त कर सकता है। हां, प्रत्येक वर्ष 15 अगस्त के दिन हम जो स्वतंत्रता-दिवस एक राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाते हैं, उसको मनाने की मूल भावना इसी रतरह की रहा करती एंव रहनी भी चाहिए। हमारे नव-स्वतंत्रता-प्राप्त भारत के स्वतंत्रता-संघष्ज्र्ञ की वास्तविक कहानी बहुत लंबी है। उसका आरंभ उसी दिन हो गया था, जब व्यापार करने की सुविधांए प्राप्त कर चालाक अंग्रेजों ने अपनी सेनांए भी खड़ी कर ली थीं। फिर धीरे-धीरे यहां की अनेकता और फूट का लाभ उठा सारे देश को अपने साम्राज्यवादी लौह-शिकंजों में जगड़ लिया था। यह सब हो जाने के बाद ही देशवासियों की आंखें खुलीं। वे संगठित होने लगे और सन 1857 में उन्होंने अंग्रेजों के साम्राज्य के विरुद्ध क्रांति का बिगुल बजा दिया। यह ठीक है कि इस पहले स्वतंत्रता-संघर्ष और क्रांति का परिणाम भारत के पक्षा में न निकल सका और अंग्रेजों का दमन-चक्र और भी तेजी से चलने लगा पर स्वतंत्रता-प्राप्ति की आग और क्रांति की वह चिंगारी पराधीनता की राख में दबकर भी बुझी नहीं। वह भीतर-ही-भीतर भावी संघर्ष के क्षणों की प्रतीक्षा करती रही। अनेक सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक संस्थाओं के संगठित प्रयास ने उस चिनकारी को पिुर हवा दी। हम लोग अखिल भारतीय कांग्रेस के नेतृत्व में एक बार फिर राष्ट्रीय संग्राम के मोर्चे पर पूर्णतया संगठित होकर डट गए। अनेक नौजवानों ने इस संग्राम में अपने-अपने ढंग से प्राणों की आहुति देकर, त्योग और बलिदान करके इसे आगे बढ़ाया। क्रांतिकारी गतिविधियां, सत्याग्रह और अन्य प्रकार के अनेक राष्ट्रीय आंदोलन भी स्वतंत्रता का लक्ष्य पाने के लिए ही चले। ब्रिटिश सरकार ने अपनी ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के अनुसार कुछ लोगों को स्वतंत्रता के उस महान अभियान से फोड़ भी लिया, फिर भी संघर्ष चलता रह। अंत में 15 अगस्त 1947 की आधी रात को खंडित रूप में ही सही, भारत को अपनी स्वतंत्रता का लक्ष्य प्राप्त हो गया। उसी लक्ष्य प्राप्ति की याद में प्रत्येक वर्ष ‘स्वतंत्रता-दिवस’ के इस महान राष्ट्रीय पर्व को मनाया जाता है। राजधानी दिल्ली में ‘स्वतंत्रता-दिवस’ के इस महान पर्व को मनाने की परंपरा गणतंत्र-दिवस से भिन्न है। इस दिन सुबह-सवेरे लाल किले के चांदनी चौक की तरफ वाले मुख्य द्वार के शिखर पर ध्वजारोहण करके ही मुख्य रूप से यह पर्व मनाया जाता है। यों इसका स्वरूप संक्षिप्त सा हुआ करता है। सुबह से ही लोग लाल किले के सामने जमा होने लगते हैं। तीनों सेनाओं की सलामी टुकडिय़ां, होमगार्ड, पुलिस आदि अर्धसैनिक गण, एन.सी.सी. के छात्र-छात्रांए और स्कूली बच्चे सजधजकर सलामी आदि के प्रदर्शन के लिए सुबह ही आ जुटते हैं। तब देश के प्रधानमंत्री का आगमन होता है। पहले उन्हें सैनिक सलामी दी जाती है। अनेक प्रकार के प्रदर्शन किए जाते हैं। वह परेड का निरीक्षण करते हैं। इसके बाद प्रधानमंत्री लाल किले की प्राचीर पर बने ध्वजारोहण के मंच पर पहुंच ध्वजारोहण करते हैं। ध्वज के लहराते ही सामूहिक रूप से राष्ट्रीय गान गाया जाता है। सैनिक-बैंड पर उसकी धुन बजती रहतीी है। इस सबके बाद प्रधानमंत्री का राष्ट्र के नाम संदेश सुनाया जाता है। वह संदेश राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय नीतियों पर प्रकाश डालने वाला होने के कारण बड़ा ही महत्वपूर्ण हुआ करता है। प्रधानमंत्री का यह भाषण कई अन्य दृष्टियों से भी विशेष महत्वपूर्ण हुआ करता है। वास्तव में इस भाषण में प्रधानमंद्धी अपने अनेक प्रकार की महत्वपूर्ण राष्ट्रीय एंव अंर्राष्ट्रीय नीतियों की घोषणा मुख्य रूप से किया करते हैं। अत: लाल किले से दिया जाने वाला प्रधानमंत्री का यह भाषण देश-विदेश सभी जगह बड़े ध्यान से सुना और गुना जाता है। भाषण के बाद एक प्रकार से मुख्य समारोह प्राय: समाप्त हो जाता है। देश के अन्य भागों में भी यह दिवस स्थानीय तौर पर बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। वहां प्रांतों के मुख्यमंत्री, राज्यपाल या अन्य प्रमुख नेता राष्ट्रीय ध्वज फहराकर, स्वतंत्रता का महत्व और संदेश प्रसारित करते हैं। विदेशों में स्थित भारतीय दूतावास सभी इस पर्व को समारोह पूर्वक मनाया करते हैं। यह बात ध्यान रखने वाली है कि इस प्रकार के त्योहार मनाकर ही स्वतंत्र राष्ट्री की सरकार और नागरिकों के कर्तव्य की इतिश्री नहीं हो जाया करती। इस दिन हम कठिना से प्राप्त स्वतंत्रता की हर मूल्य पर रक्षा करने का व्रत लेते हैं। ऐसा करके ही वास्तव में इस प्रकार के राष्ट्रीय पर्वों का गौरव ओर महत्व बना रह सकता है। प्रत्येक राष्ट्र-जन का परम कर्तव्य हो जाता है कि वह मूल भावना को समझ अपने व्यवहार को भी तदनुरूप बनाए। तभी ऐसे आयोजन सफल कहे जा सकते हैं। तभी राष्ट्र का गौरव भी बढक़र अक्षुण्ण बना रहा करता है।