पश्चिम बंगाल में हुगली तालुके में कामार नाम के गांव में एक ब्राह्मण परिवार रहता था । इसी ब्राह्मण परिवार में 18 फरवरी, 1836 को एक तेजस्वी बालक ने जन्म लिया ।
तब कौन कह सकता था कि उस साधारण ब्राह्यण परिवार में जन्मा वह बालक एक दिन संसार भर में अध्यात्म गुरु के रूप में जाना जाएगा । बालक का नाम गदाधर रखा गया । पांच वर्ष की अल्पायु में ही बालक गदाधर की प्रखर बुद्धि और स्मृति ने सबको अचम्भित कर दिया ।
गदाधर अपने पूर्वजों की नामावली को धाराप्रवाह बखान करते तो सब लोग दांतों तले उंगली दबा लेते । रामायण गीता और महाभारत जैसे ग्रंथ भी गदाधर को कंठस्थ थे । उनकी विद्वत्ता देखकर उन्हें कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) शहर में यज्ञ हवनादि कार्य करने के लिए कहा गया ।
उस समय कलकत्ता में रानी रासमणि नाम की एक उदार भगवद्भक्त धनी स्त्री रहती थी । कई मंदिर और धर्मस्थानों का निर्माण कर चुकी रानी रासमणि ने दक्षिणेश्वर में काली मां का एक भव्य और विशाल मंदिर बनवाया । यही मंदिर गदाधर जी की साधना-स्थली बना ।
इसी मंदिर में आध्यात्मिक साधना का अवसर मिला तो युवा गदाधर ने अनन्य भाव से माता जगदम्बा की आराधना की । वह स्वयं माता को अपने हाथों से भले लगाते । उनके हृदय में कोई इच्छा तो थी ही नहीं । अन्य पुजारियों की भांति वह मां के सुमिरन में धन, ऐश्वर्य या भौतिक साधनों की इच्छा नहीं करते थे ।
उनकी तो सिर्फ एक ही इच्छा थी कि माता भगवती उन्हें साक्षात रूप में दर्शन दें । वह बहुत देर तक माता के सामने बैठकर मां से विनती करते कि : “हे आनंदमयी जगद्जननी जगरूपा मुझ अज्ञानी को दर्शन देकर कृतार्थ करो । दर्शन बिना जीवन अधूरा है । मेरी यही एकमात्र अभिलाषा है मां ।”
इनके अंतर में दर्शन की अभिलाषा इतनी बढ़ गई कि यह व्याकुल हो उठे । इनका मन कहीं भी नहीं लगता था । एक दिन दर्शन विरह इतनी प्रबल हो गई कि इन्होंने अपना जीवन समाप्त करने का निश्चय किया । जब माता के दर्शन ही न हों तो ऐसे जीवन का क्या लाभ ! यही सोचकर इन्होंने अपना श्वास रोक लिया ।
तभी मंदिर का कण-कण दिव्य प्रकाश से नहा उठा । माता जगदम्बा अपने मनभावन तेजमय स्वरूप में साक्षात इनके सम्मुख थीं । गदाधर माता के चरणों में नतमस्तक हो गए । उसके बाद माता ने इन्हें कई बार दर्शन दिया । माता की कृपा से इन्हें तत्त्वज्ञान हो गया ।
तत्पश्चात इन्होंने संन्यासी तोतापुरीजी से संन्यास की दीक्षा ली और उन्होंने ही इन्हें ‘रामकृष्ण परमहंस’ का नाम दिया । माता की कृपा से परमहंस का मन अन्य सभी कार्यों से विरक्त हो गया । अब भगवान के भिन्न स्वरूपों के दर्शन पाने की इच्छा से इन्होंने भगवान राम की उपासना की ।
इन्हें श्रीराम और माता सीता के साक्षात दर्शन का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ । सन् 1862 ई. में श्री परमहंस ने एक महायोगिनी तपस्विनी के मार्गदर्शन में तंत्र-मंत्र की कठिन साधना की । परमहंस प्रेम-पंथ की चरमसीमा पर पहुंच गए थे । अब वे ब्रह्म के अद्वैत साक्षात्कार के अधिकारी बन गए थे ।
जब इनकी भक्ति शिखर पर पहुच गई तौ मा जगदम्बा ने ब्रह्मज्ञान के महारहस्य की दीक्षा देने हेतु वेदांत के प्रकाड विद्वान को भेजा । उनकी कृपा से यह भगवान के सर्वरूपों में समाहित हो गए और छह माह की कठिन साधना-समाधि में लीन हो गए ।
इस समाधि के बाद परमहंस को माता जगदम्बिका का साध्य प्राप्त हो गया । अब माता स्वयं साकार होकर उनके हाथों से भोग ग्रहण करतीं और वे एक बालक की भांति मां को भोग लगाकर प्रसन्न होते । इनके पास कितने ही साधकों ने साधना-सिद्धि की ।
इनके शिष्यों में नरेन्द्रनाथ सर्वगुणसम्पन्न और सच्चे साधक थे । उनकी दृढ़ता और जिज्ञासा अपार थी । परमहंस ने नरेन्द्रनाथ को ही अपने उद्देश्य का उत्तराधिकारी नियुक्त किया । यही नरेन्द्रनाथ आगे चलकर स्वामी विवेकानंद के नाम से विश्वविख्यात हुए ।
रामकृष्ण परमहंस ने मां दुर्गा में ही भगवान के दर्शन कर लिए थे । उनका मूर्ति में ही सजीव भाव था । बताते हैं कि एक बार मां की मूर्ति खंडित हो गई थी तो वे बहुत रोए थे और उन्होंने मूर्ति की खंडित टांगों को स्वयं चिपकाया था आज भी वह मूर्ति दक्षिणेश्वर में विराजमान है ।
अत में इन्हें गले का कैंसर हो गया और एक वर्ष पश्चात 15 अगस्त, 1886 को इन्होंने महासमाधि ले ली और ब्रह्मलीन हो गए । परमहंसजी अध्यात्म के तत्त्वद्रष्टा युगद्रष्टा थे । वह भारत की प्राचीन संस्कृति पर अटूट श्रद्धा रखते थे । हिन्दू धर्म और आर्य संस्कृति के महान आदर्शों को प्रकट करते हुए उस छोटे से बालक गदाधर ने रामकृष्ण परमहंस के रूप में अपना जीवन सार्थक कर दिखाया ।