प्राचीन भारतीय इतिहास : 6 – ऋग्वैदिक काल का रहन सहन और अर्थव्यवस्था

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प्राचीन भारतीय इतिहास : 6 – ऋग्वैदिक काल का रहन सहन और अर्थव्यवस्था

राजनीतिक स्थिति

ऋग्वेदिक राजनितिक व्यवस्था काफी सरल थी, यह कबीलाई व्यवस्था थी। आर्य राज्यों की बजाय कबीलों में संगठित थे। इसमें बड़े राज्य का निर्माण दृष्टिगोचर नहीं होता, यह एक जनजातीय सैन्य लोकतंत्र था। इसकी शक्ति का मुख्य स्त्रोत कबीले की परिषद् थी। प्रशासन की बाग़डोर कबीले के मुखिया के हाथ में होती थी। कबीले का मुखिया युद्ध का नेतृत्व भी करता था, इसलिए उसके राजन (राजा) कहा जाता था। ऋग्वेदिक काल में राजा को जनस्य गोपा, पुरभेत्ता, विशपति, गणपति और गोपति कहा जाता था। सभा और समिति नामक कबीलाई संगठन कबीले के प्रशासन के लिए उत्तरदायी होती थी। राजन सभा और समिति की स्वीकृति के बाद ही पदवी ग्रहण करता था।

कबीले के प्रशासन व राजन के चुनाव में सभा और समिति की भूमिका काफी महत्वपूर्ण थी।कबीले की आम सभा को समिति कहा जाता था, यह समिति अपने राजा को चुनती थी। राजा का कार्य कबीले के मवेशियों की रक्षा, युद्ध में नेतृत्व और कबीले की ओर से देवताओं की प्रार्थना करना होता था। ऋग्वेद में सभा, समिति, विदथ और गण इत्यादि का वर्णन किया गया है। इस सभा व समितियों में प्रजा के हितों, सैनिक अभियानों और धार्मिक अनुष्ठानों के बारे में विचार-विमर्श होता था।सभा में वृद्ध व अभिजात लोग शामिल होते थे, इसमें भाग लेने वाले लोगों को सभेय कहा जाता था। इसके सदस्य श्रेष्ठ जन होता थे, उन्हें सुजान कहा जाता था। इन लोगों को कुछ न्यायिक अधिकार भी प्राप्त होते थे।आम लोगों की संस्था को समिति कहा जाता था, इस समिति में महिलाएं भाग नहीं लेती थीं। इस समिति के प्रमुख को ईशान कहा जाता था। राजा के चुनाव में उसकी भूमिका सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होती थी।

आर्यों की एक अन्य  संस्था विदथ थी, यह आर्यों की सबसे प्राचीन संस्था थी। विदर्थ में युद्ध में प्राप्त वस्तुओं  किया को बांटा जाता था।अथर्ववेद में वर्णित मान्यता के अनुसार सभा और समिति राजा प्रजापति की दो पुत्रियाँ हैं।इसमें सभा को नरिष्ठा और समिति के अध्यक्ष को ईशान कहा गया है। महिलाओं को सभा और विदर्थ में हिस्सा लेने की अनुमति थी, वे समिति में भाग नहीं ले सकती थीं। संभवतः शुरू में परिषद् एक जनजातीय सैन्य सभा थी, यह कुछ सीमा तक पितृसत्तात्मक व मातृसत्तात्मक दोनों थी। इसका स्वरुप कुछ हद तक मिश्रित था,परन्तु बाद में इसके स्वरुप में काफी परिवर्तन आया।

प्रशासनिक कार्यों के लिए वैदिककाल में राजा निर्णय लेने के लिए जनजातीय संगठनों से पहले विचार-विमर्श करता था।उसकी सहायता के लिए विभिन्न सहयोगी होते थे।राजा के प्रमुख सहयोगी पुरोहित, सेनानी, व्राजपति, कुलप, ग्रामणी, पुरप, स्पश और दूत होते थे।

वैदिक काल में राजनीतिक व्यवस्था काफी सरल व सीमित थी।वैदिककाल में प्रशासन की सबसे छोटी इकाई कुल थी। कुल के बाद ग्राम तथा उसके बाद विष थे। विष के बाद जन नामक इकाई थी, यह वैदिककाल में प्रशासन की सबसे बड़ी इकाई थे।

कुल के प्रधान को कुलप कहा जाता था। ग्राम के प्रधान ग्रामणी कहा जाता था जबकि विष के प्रधान विशपति कहलाता था। गौरतलब है की ऋग्वेद में जनपद शब्द का उल्लेख नहीं मिलताहै। जनपदों के उदय उत्तर वैदिक काल में भारत में विभिन्न हिस्सों में हुआ।ऋग्वेदिक काल में राजा के पास स्थाई सेना नहीं होती थी। ब्रात, गण, ग्राम और सर्धं नाम से जनजातीय टोलियाँ युद्ध में हिस्सा लेती थीं। यह टोलियाँ राजन (राजा) के नेतृत्व में युद्ध लड़ती थी। युद्ध में लूटी गयी वस्तुओं को विदथ नामक संगठन द्वारा वितरित किया जाता था।

ऋग्वेदिक काल की सामाजिक स्थिति

ऋग्वेदिक काल में व्यवसाय के आधार पर समाज को अलग-अलग वर्गों में बांटा गया। ऋग्वेद के दसवें मंडल में व्यवसाय के आधार पर चार वर्णों का उल्लेख किया गया है, यह वर्गीकरण जातिगत व्यवस्था से भिन्न था। ऋग्वेदिक काल में परिवार समाज की सबसे छोटी इकाई हुआ करता था, समाज मुख्यतः पितृसत्तात्मक था, इसके बावजूद स्त्रियों का स्थान समाज में उच्च था।

ऋग्वेदिक काल में पुत्रों की भाँती पुत्रियों का भी उपनयन संस्कार भी किया जाता था तथा उन्हें भी शिक्षा प्रदान की जाती थी। ऋग्वेदिक काल में कई प्रसिद्ध स्त्री विद्वान हुई हैं, उन्होंने धार्मिक रचनाओं में महत्वपूर्ण योगदान दिया।ऋग्वेदिक काल में अपाला, घोषा, लोपामुद्रा, विश्ववारा और सिक्ता ने वैदिक ऋचाओं की रचना की। इन विद्वान् स्त्रियों को “ऋषि” कह कर संबोधित किया गया है। जीवन भारत धर्म और दर्शन का अध्ययन करने वाली स्त्रियों को ब्रह्मावादिनी कहा जाता है। ऋग्वेद में “पत्नी की गृह है” कहकर महिलाओं के महत्त्व को स्वीकार किया गया है। ऋग्वेदिक काल में स्त्रियों को कुछ राजनीतिक अधिकार भी प्राप्त थे, उन्हें अपने पति के साथ यज्ञ में भाग लेने का अधिकार भी प्राप्त था।

ऋग्वेदिक काल में सामाजिक संगठन का आधार गोत्र था, लोगों में अपने कबीले के प्रति आस्था थी, जिसे जन भी कहा जाता था। शुरू में आर्य संगठित थे, वे विश नामक कबीले से सम्बंधित थे, बाद में यह तीन भागों पुरोहित, राजन तथा सामान्य वर्ग में बंट गया। इस दौरान अलग-अलग लोगों के लिए वर्ण शब्द का उपयोग किया जाने लगा।

ऋग्वेदिक काल में शिक्षा

ऋग्वेदिक काल में शिक्षा की गुरुकुल पद्धति विद्यमान थी, इसमें गुरु द्वारा शिष्यों को गुरुकुल में शिक्षा प्रदान की जाती थी। ऋग्वेद में एक छात्र का वर्णन मिलता, वह लिखता है “मैं कवि हूँ, मेरे पिता वैद्य हैं और मेरी माता पीसती हैं।“ इससे स्पष्ट होता है कि ऋग्वेद में लोग विभिन्न व्यवसायों में संलग्न थे।

ऋग्वेदिक काल में जीवन शैली

वस्त्र के रूप में आर्य सूत, उन और मृगचर्म का उपयोग किया जाता था।ऋग्वेदिक काल में ऊनी वस्त्रों को सामूल्य कहा जाता था। जबकि कढाई किये गए कपड़े को पेशस कहा जाता था। कमर से नीचे पहने जाने वाले वस्त्र को नीवी कहा जाता था, जबकि कमर से ऊपर पहने जाने वाले वास्ता को वासस कहा जाता था, ओढ़ने वाले वस्त्र को अधिवासस कहा जाता था। आर्य कवच व शिरस्त्राण का उपयोग भी करता था। ऋग्वेदिक काल में पगड़ी व आभूषण स्त्री व पुरुष दोनों द्वारा धारण किये जाते थे। काल के आभूषण को कर्णशोभन, सिर पर धारण करने के आभूषण को कुरीर, गले के आभूषण को निष्क व मणि और अंगूठी को ज्योचनी कहा जाता था।

ऋग्वेदिक काल में लोग शाकाहारी और मांसाहारी दोनों थे, चावल, जौ, फल, दूध, दहीं, घी व मांस इत्यादि लोगों के आहार का हिस्सा था। दूध में पके हुए चावल को क्षीर पकोदनम (खीर) कहा जाता था। जौ के सत्तू को दहीं में मिलाकर करभ नामक व्यंजन तैयार किया जाता था। इस दौरान लोग भेड़, बकरी और बैल के मांस का भक्षण भी करते थे। ऋग्वेदिक काल में गाय को अघन्य कहा जाता था, अर्थात ऐसा पशु जिसे मारा नहीं जाता। इस दौरान नमक और मछली का संकेत नहीं मिलता। हालांकि ऋग्वेदिक काल में सोम और सूरा नामक मादक पदार्थ का सेवन किया जाता था, इसका उल्लेख ऋग्वेद के नौवें मंडल में किया गया है।

मनोरंजन के लिए आर्य नृत्य व संगीत का आनंद लेते थे, इसके अतिरिक्त वे शिकार, रथदौड़, घुड़दौड़ और पासा खेल का उपयोग मनोंजन के लिए करते थे।

ऋग्वेद में इंद्र शब्द का उल्लेख 250 वार, अग्नि 200, वरुण 30, जन 275, विश 171, माता 234, वर्ण 23, सभा 8, समिति 9, विदथ 122, सोम 144, गण 46, विष्णु 100 और राष्ट्र का उल्लेख 10 बार किया गया है।

ऋग्वेदिक कालीन अर्थव्यवस्था 

ऋग्वेदिक काल में लोग विभिन्न व्यवसायों में संलग्न थे, इस दौरान कृषि और पशुपालन प्रमुख व्यवसाय था। इसके अतिरिक्त कुछ लोग अन्य रचनात्मक कार्यों में भी संलग्न थे।ऋग्वेद में कई प्रकार के शिल्पकार अस्तित्व में थे, रथकार, बढई, बुनकर, चर्मकार, कुम्हार प्रमुख शिल्पी थे। ऋग्वेदिक काल में आर्यों द्वारा तीन प्रमुख धातुओं सोना, ताम्बा और कांसा का उपोग किया जाता था। ताम्बे या कांसे के लिए अयस शब्द का उपयोग किया जाता था।

ऋग्वेदिक काल में व्यापारिक गतिविधियाँ काफी सीमित थीं। व्यापार मुख्य रूप से वस्तु विनिमय प्रणाली के आधार पर किया जाता था। इस दौरान राजा को नियमित कर देने की व्यवस्था नहीं थी। राजा को स्वेच्छा से कर दिया जाता था। युद्ध में हारा हुआ कबीला विजयी राजा को भेंट देता था। राजा इस धन को अपने अन्य सहयोगियों के साथ बांटता था।

ऋग्वेदिक संस्कृति ग्रामीण थी, आर्यों का मुख्य व्यवसाय पशुचारण था, कृषि उनका गौण व्यवसाय था। पशुधन उनकी मुख्य संपत्ति हुआ करती थी, गाय को लेकर आर्यों ने कई युद्ध लड़े, गाय को सबसे उत्तम धन माना जाता था। ऋग्वेद में युद्ध के लिए गवेषण, गेसू, गव्य और गम्य शब्द का उपयोग किया गया है।

ऋग्वेदिक काल में कृषि और पशुपालनक

ऋग्वेदिक काल में पशुचारण आजीविका का मुख्य साधन था। इस दौरान गाय का काफी महत्वपूर्ण व मूल्यवान पशु माना जाता थागाय के महत्ता के कारण धनी व्यक्ति को गोमल कहा जाता था और राजा को गोपति कहा जाता था। समय के माप के लिए गोधूली और दूरी के माप के लिए गवयतु शब्द का उपयोग किया जाता था। ऋग्वेद में “गो” शब्द गाय से सम्बंधित है, इसका उल्लेख ऋग्वेद में 176 बार किया गया है। ऋग्वेदिक काल में आर्य भूमि का उपयोग पशु चराने, खेती करने व बसने के लिए करते थे।

ऋग्वेद में केवल एक मात्र अनाज का उल्लेख किया गया है, इसमें केवल जौ का उल्लेख किया गया है। ऋग्वेद में 5 ऋतुओं का विवरण मिलता है। कृषि की महत्ता के तीन शब्द उर्दर, धान्य और संपत्ति का उल्लेख भी ऋग्वेद में मिलता है। रई से तात्पर्य मवेशी से है, इस दौरान घोडा, हाथी, ऊँट, बैल, भेड़, बकरी और कुत्ता प्रमुख पालतू पशु थे।

ऋग्वेद में कृषिका उल्लेख 24 बार किया गया है, कई स्थानों पर यव और धान्य शब्द का उपयोग कृषि के लिए किया गया है। ऋग्वेद के चौथे मंडल में खेती की प्रक्रिया का वर्णन किया गया है। ऋग्वेद में जिन कृषि सबंधी शब्दों का उपयोग किया गया है, वे इस प्रकार हैं :

उर्वरा (जुते हुए खेत), लांगल (हल), करिषु (गोबर की खाद), अवट (कुआँ), सीता (हल के निशान), कीवाश (हलवाहा), पर्जन्य (बादल), कुल्या (नहर), खिल्य (चारागाह), दात्र (हंसिया), स्थिवी (अन्न कोठार, शूर्प (चलनी), वर्ष (गट्ठर) इत्यादि शब्द कृषि से सम्बंधित हैं, इनका उल्लेख ऋग्वेद में किया गया है।

ऋग्वेदकालीन शिल्प और व्यापार

ऋग्वेदिक काल में व्यापारिक गतिविधियाँ काफी सीमित थीं। व्यापार मुख्य रूप से वस्तु विनिमय प्रणाली के आधार पर किया जाता था।ऋग्वेदिक काल में कपड़े बुनने का कार्य बड़े पैमाने पर किया जाता था, यह कार्य मुख्य रूप से स्त्रियों द्वारा किया जाता था। इसके लिए “सिरी” नामक शब्द का उपयोग भी किया जाता है। ऋग्वेद में करघा के लिए तसर शब्द, बुने के लिए ओतु व तंतु, उन के लिए शुध्यव शब्द का उपयोग किया गया है। जुलाहे को तंतुवाय, बढई को तक्षण और चमड़े का कार्य करने वाले को चर्मन्न कहा जाता था। इस दौरान रथों का महत्त्व काफी अधिक था, इसके परिणामस्वरुप तक्षण की का समाज में काफी मान-सम्मान था।

सिन्धु घाटी सभ्यता में सर्वप्रथम कपास की खेती की गयी थी, परन्तु ऋग्वेद में कपास के उल्लेख नहीं मिलता। ऋग्वेदिक काल में आर्य ग्रामीण थे और वे कृषि सम्बन्धी गतिविधयों में शामिल थे, इसलिए ऋग्वैदिक काल में व्यापारिक गतिविधियाँ ज्यादा प्रचलित नहीं थीं। ऋग्वेदिक काल में गैर-आर्य लोग व्यापार करते थे, उन्हें पणी कहा जाता था। ऋग्वेदिक काल में ब्याज पर ऋण देने वाले व्यक्ति को बेकनाट कहा जाता था। इस दौरान व्यापारिक मार्ग जलीय व स्थलीय दोनों प्रकार का था। व्यापार के लिए निष्क और शतमान का उपयोग किया जाता था। यह स्वर्ण आभूषण थे, बाद में यह विनिमय का माध्यम बन गया।

ऋग्वेदिक काल में धार्मिक स्थिति

वैदिक धर्म में पुरोहित को ईश्वर और मानव के बीच मध्यस्थ माना जाता है। ऋग्वेद 33 देवो का वर्णन किया गया है।आर्यों का जीवन काफी सादा था, वे बहु-देववादी होने के साथ-साथ एकश्वरवादी भी थे। ऋग्वेदिक काल में यज्ञ और प्रकृति पूजा प्रमुख धार्मिक गतिविधियाँ थी। ऋग्वेद में ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का वर्णन किया गया है। अपने दायित्व को पूरा करना, स्वयं व दूसरों के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना धर्म माना जाता था। इस दौरान मनुष्य द्वारा प्रकृति की पूजा मानवीकरण करके की जाती थी और कुछ देवताओं की पूजा पशुं के रूप में की जाती थी।

मरुतों की माता की कल्पना चितकबरी गाय के रूप में की गयी है। आर्य देवताओं को प्रसन्न करने के लिए मंत्रोचारण व यज्ञ करते थे। देवताओं को प्राकृतिक शक्तियों का प्रतीक माना जाता था। उमा, अदिति, सविता, अरण्यानी इत्यादि प्रमुख देवियाँ थीं।

देवताओं का विभाजन तीन श्रेणियों में किया गया है : आकाशीय देवता, अन्तरिक्ष देवता व पृथ्वी देवता। आकाश के देवता में सूर्य, द्यौस, वरुण, मित्र, पूषण, विष्णु, सवित, आदित्य, उषा और अश्विन प्रमुख थे। इंद्र, रूद्र, मरुत, वायु, पर्जन्य और मातरिश्वन प्रमुख अन्तरिक्ष देवता हैं। जबकि अग्नि, सोम, पृथ्वी, बृहस्पति और सरस्वती पृथ्वी देवता हैं।

द्यौस को सर्वाधिक प्राचीन देवों में से एक माना जाता है, वे इंद्र के पिता हैं, अग्नि उनका भाई और और मरुत उनका सहयोगी है। ऋग्वेद में इंद्र को संसार का स्वामी माना गया है, उन्हें पुरंदर, पुर्भिद और अत्सुजीत भी कहा जाता है। इंद्र को वर्षा का देवता माना जाता है, इंद्र के अन्य नाम वज्रबाहु, रथेष्ठ, विजेंद्र, सोमपा, शतक्रतु, वृत्रहन और मधवन है। उनकी पत्नी शची अथवा इन्द्राणी कहा जाता है।

अग्नि ऋग्वेदिक कालीन के दूसरे सबसे महत्वपूर्ण देवता हैं, उन्हें देवताओं और मनुष्यों के बीच मध्यस्थ माना जाता है। क्योंकि अग्नि के माध्यम से देवताओं को आहुतियाँ दी जाती थी, अग्नि पुरोहितों के देवता माने जाते हैं। उनका निवास स्वर्ग है, भृगुओं तथा अन्गिरसों ने उनकी स्थापना पृथ्वी में यज्ञ वेदी में की। अग्नि देवता को जातवेदस, भुवनचक्षु और हिरण्यदन्त भी कहा गया है।

ऋग्वेदिक काल के तीसरे महत्वपूर्ण देवता वरुण हैं, उन्हें जल देवता भी कहा जाता है। उन्हें ऋतस्य गोपा भी कहा गया है। वरुण देवता का मुख्य कार्य सृष्टि की नियमितता और भौतिक एवं नैतिक व्यवस्था है।सोम को पेय पदार्थ का देवता कहा जाता है। ऋग्वेद में मित्र और वरुण देवा का वास सहस्त्र स्तंभों वाले भवन में बताया गया है। ऋग्वेद में वैद्य के लिए भिषज नामक शब्द का उपयोग किया गया है। आश्विन देवता को भी भिषज कहा जाता है।

पूजा विधि

ऋग्वेदिक काल में उपासना के प्रति दृष्टिकोण व्यवहारिक था।ऋग्वेदिक काल में उपासना की मुख्य विधियाँ प्रार्थना और यज्ञ थीं। रिग्वेदिक काल में लोग संतान प्राप्ति, पशुधन, युद्ध में विजय इत्यादि के लिए देवताओं की उपासना करते थे। यज्ञ की अपेक्षा प्रार्थना अधिक प्रचलित थी, उपासना का मुख्य उद्देश्य लौकिक था।

प्रमुख ऋग्वेदिक देवीदेवता

सरस्वतीनदी व विद्या देवी
मरुतआंधी व तूफ़ान के देवता
पूषणपशुओं के देवता
अरण्यानीवन देवी
यममृत्यु के देवता
मित्रप्रतिज्ञा के देवता
अश्विनचिकित्सा के देवता
सूर्यजीवन देने वाले देवता
त्वष्टाधातुओं के देवता
आर्षविवाह व संधियों के देवता
विवस्वानदेवताओं के जनक
सोमवनस्पति व पेय पदार्थों के देवता

 

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