प्राचीन भारतीय इतिहास : 2 – प्रागैतिहासिक भारत

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प्राचीन भारतीय इतिहास : 2 – प्रागैतिहासिक भारत

प्रागैतिहासिक मानव का समयकाल, मानव की उत्पत्ति से 3000 ईसा पूर्व माना जाता है। यह मानव का शुरूआती समयकाल था और उसकी जीवन शैली भी अधिक विकसित नहीं थी, इस काल के सम्बन्ध में अधिक लिखित साक्ष्य मौजूद नहीं हैं। प्रागैतिहासिक काल का अध्ययन करने के लिए पुरातात्विक साक्ष्य का उपयोग किया जाता है।

प्रागैतिहासिक काल के अंतर्गत पाषाण काल, ताम्र काल आते हैं। भारत में प्रागैतिहासिक काल में अनेक संस्कृतियाँ मौजूद हैं।

पाषाण काल (Stone Age)

पाषाण काल से तात्पर्य उस समयकाल से है जब मानव पत्थरों पर काफी निर्भर था, वह पत्थर के औज़ार से शिकार, पाषाण गुफा में निवास व पत्थर से आग उत्पन्न करता था। यह मानव विकास का आरंभिक समय काल है। पाषाण काल को तीन मुख्य चरणों में बांटा गया है – पुरापाषाण काल, मध्य पाषाण काल और नव पाषाण काल। इस अध्याय में हम पाषाण काल का विस्तृत अध्ययन करेंगे।

पुरापाषाण काल (Paleolithic Period)

पुरापाषाण काल समय की वह अवधि है जिसमे मनुष्य ने पत्थर के उपकरण बनाना शुरू किया।भारत में पुरापाषाण काल के अवशेष तमिलनाडु के कुरनूल, कर्नाटक, ओडिशा, राजस्थान और मध्य प्रदेश के भीमबेटका से मिले हैं। भारत में पुरापाषाण काल के काफी कम अवशेष प्राप्त हुए हैं।

पुरापाषाण काल की अनुमानित समय अवधि 10 लाख से 10 हज़ार ईसा पूर्व है। इस दौरान मानव की आरंभिक गतिविधियाँ शुरू हुई, भारत में इसके साक्ष्य सोहन, बेलन व नर्मदा घाटी से प्राप्त हुए हैं। भारत में पुरापाषाण संस्कृति की खोज का श्रेय रोबर्ट ब्रूस फ्रूट को दिया जाता है। रोबर्ट ब्रूस फ्रूट ने 1863 ईसवी में इस सम्बन्ध में महत्वपूर्ण खोज की। पुरापाषाण काल में मानव की गतिविधियाँ काफी सीमित थी, वह स्वयं के भरण पोषण के लिए शिकार व खाद्य संग्रह पर निर्भर था और गुफाओं में निवास करता था। इस काल के मनुष्य नेग्रिटो नस्ल के थे।

भारत में पुरापाषाण काल से सम्बंधित एक महत्वपूर्ण साक्ष्य महाराष्ट्र के “पटने” नामक स्थान से शुतुरमुर्ग के अवशेष के रूप में प्राप्त हुआ है। भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकाँश भागों से इस तरह के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं, केवल गंगा के विशाल मैदान व सिन्धु नदी घाटी क्षेत्र से पुरापाषाण काल से सम्बंधित कोई भी साक्ष्य नहीं मिले हैं। पुरापाषाण काल में मानव द्वारा पत्थर से बने औजारों का उपयोग प्रचलित था, कुल्हाड़ी इनमे से प्रारंभिक औजारों में से एक है।

पुरापाषाण काल को समय के साथ उत्पन्न होने वाली विभिन्नताओं के आधार पर कई भागों में बांटा गया है, जो इस प्रकार से है :

  • निम्न पुरापाषाण काल (Lower Paleolithic)
  • मध्य पुरापाषाण काल (Middle Paleolithic)
  • उच्च पुरापाषाण काल (Upper Paleolithic)

निम्न पुरापाषाण काल

यह पुरापाषाण काल का सबसे पुराना भाग है, यह लगभग 3.3 मिलियन वर्ष पूर्व प्रारंभ हुआ था, जब पत्थर का उपयोग पहली बार औज़ार बनाने के लिए किया गया था। इस काल में कोर उपकरणों का उपयोग किया जाता था, यह उपकरण क्वार्टजाईट पत्थर से निर्मित किये जाते थे। निम्न पुरापाषाण काल की जलवायु शीत थी। भारत में निम्न पुरापाषाण काल के साक्ष्य सोहन घाटी, बेलन घाटी, भीमबेटका इत्यादि में मिले हैं। इस काल में ओल्डोवन किस्म के औज़ार सर्वप्रथम उपयोग किये गये, इस औजारों का उपयोग अफ्रीका, दक्षिण एशिया और मध्य पूर्व में किये जाने के संकेत मिलते हैं।

मध्य पुरापाषाण काल

यह पुरापाषाण काल का दूसरा भाग है, इसका समय काल लगभग 3 लाख वर्ष से 30 हज़ार वर्ष पूर्व है। इस काल में पत्थरों से बने औजारों में काफी परिवर्तन आया, औज़ार पहले की अपेक्षा छोटे व तीक्ष्ण थे। भारत में भीम बेटका व नर्मदा नदी घाटी क्षेत्र इस काल से सम्बंधित हैं, इन क्षेत्रों में मध्य पुरापाषाण कालीन औजारों के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। इस काल को फलक संस्कृति के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि इस काल में विभिन्न प्रकार के फलक का उपयोग किया गया, इसमें वेधनी, छेदनी इत्यादि प्रमुख हैं। इन औजारों का निर्माण क्वार्टज़ाईट के साथ साथ जेस्पर द्वारा भी किया जाने लगा था। इस काल में मानव के व्यवहार में भी काफी विकास हुआ, इस काल में मृत को दफ़नाने के साक्ष्य भी मिले हैं। पुरातत्वविदों द्वारा इस काल में धार्मिक विचारधारा के उदय का अनुमान लगाया जाता है।

उच्च पुरापाषाण काल

उच्च पुरापाषाण काल, पुरापाषाण काल का अंतिम भाग है, यह काल लगभग 50 हज़ार वर्ष पूर्व से 10 हज़ार वर्ष पूर्व के बीच है। इस काल में मानव का आधुनिकतम स्वरुप होम सेपियन्स अस्तित्व में आया और मानव के व्यवहार में काफी परिवर्तन आया। मानव ने पत्थर से निर्मित घरों में निवास करना शुरू किया। इस काल में पत्थर के अतिरिक्त अस्थियों के औज़ार भी उपयोग किये जाने लगे।  भारत में छोटानागपुर पठार क्षेत्र, मध्य भारत, कुरनूल व गुजरात इत्यादि इस काल से सम्बंधित हैं। इस काल से गुफा भीति चित्र व अन्य कलात्मक कृतियों के निर्माण के साक्ष्य मिले हैं। दक्षिण अफ्रीका की ब्लोमबोस गुफा से मानव द्वारा मछली पकड़ने के प्रथम संकेत मिलते हैं। इस काल में पत्थर के अतिरिक्त अस्थियों के औज़ार भी उपयोग किये जाने लगे।

मध्य पाषाण काल (Mesolithic Period)

भारत में मध्य पुरापाषाण काल का समयकाल 10,000 से 6,000 ईसा पूर्व माना जाता है। पुरापाषाण काल के बाद मध्य पाषाण काल शुरू हुआ, यह पुरापाषाण और नवपाषाण काल के बीच का काल है। इस काल में मानव की जीवन शैली में काफी परिवर्तन आया, मानव द्वारा खाद्य संग्रहण की प्रक्रिया इस काल में शुरू की गयी।औजारों का आकार व प्रकार भी काफी बदल गया, औजारों को पकड़ने के लिए लकड़ी का उपयोग किया जाने लगा, यह नए औज़ार अधिक नुकीले व तीखे थे। इस काल में आरंभिक खेती व पशुपालन के संकेत मिलते हैं, भारत में आरंभिक खेती के साक्ष्य राजस्थान के बागोर व मध्य प्रदेश के आदमगढ़ से मिलते हैं।

इस काल के दौरान मानव बस्तियों के साक्ष्य मिलते हैं, मानव का जीवन काफी सुनियोजित था। वह अब गुफाओं की अपेक्षा स्थाई निवास में रहने लगा, भारत में उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में स्थित सराय नाहर राय में इसके संकेत मिलते हैं। यह बस्तियां सामान्यतः जल स्त्रोत की निकट स्थित होती थी। मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में स्थित भीमबेटका गुफा में मध्य पाषाण कालीन चित्रकारी के साक्ष्य मिलते हैं, इन चित्रों में हिरण के चित्र सर्वाधिक हैं। मध्य पुरापाषाण काल में तीर-कमान का आविष्कार हुआ, इस काल में मानव जानवरों का शिकार करके खाद्य पदार्थों का संग्रहण करता था।

नव पाषाण काल (Neolithic Period)

नवपाषाण काल की अवधि 10 हज़ार वर्ष से 2500 ईसा पूर्व के बीच है, यह समय अवधि विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग है। दक्षिण एशिया में नवपाषाण काल से सम्बंधित स्थान हरियाणा के भिर्राना व मेहरगढ़ में स्थित है, इसका अनुमानित समयकाल 7570 से 6200 ईसा पूर्व के बीच है। इसके साथ पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रान्त के काची क्षेत्र में गेहूं व ज्वार की खेती व पशुचारण के साक्ष्य मिलते हैं, यह साक्ष्य 6500 से 5500 ईसा पूर्व के समय काल के हैं।

वर्ष 1860 में ली मेसूरिचर ने उत्तर प्रदेश के टोंस नदी घाटी क्षेत्र से नवपाषाण कालीन पत्थर के औज़ार प्राप्त हुए हैं। इस काल में कृषि प्रधान व्यवसाय बन चुका था। हरियाणा के मेहरगढ़ से हिरण, भेड़, बकरी व सूअर के अवशेष मिले हैं। दक्षिण भारत में नवपाषाण काल की अवधि 6500 ईसा पूर्व से 1400 ईसा पूर्व के बीच है। यह काल कर्नाटक के बाद तमिलनाडू में प्रारंभ हुआ।

नवपाषाण काल में मानव का जीवन एक सीमा तक सुनियोजित था, वह स्थाई निवास स्थान में निवास करता था, इस काल में मिट्टी में सरकंडे से निर्मित घर प्रधान थे। यह गोलाकार अथवा आयताकार होते थे। मेहरगढ़ में उत्खनन में प्राप्त एक कब्र में मृतक के साथ बकरी के भी अवशेष मिले हैं। जम्मू-कश्मीर में बुर्जहोम और गुफ्कराल नामक स्थान नवपाषाण काल से सम्बंधित हैं। बुर्जहोम में अस्थियों व पत्थर से बने औज़ार प्राप्त हुए हैं, जिससे स्पष्ट होता है की यहाँ के निवासी शिकार व कृषि पर निर्भर थे। बुर्जहोम में व्यक्ति के शव के साथ उसके कुत्ते को भी कब्र में दफनाये जाने के संकेत मिलते हैं। गुफ्कराल कश्मीर में त्राल नामक स्थान के निकट स्थित है। बिहार के चिरांद नामक स्थान  में हिरण के सींगों से निर्मित औज़ार प्राप्त हुए हैं जबकि कर्नाटक में निवास स्थल के साक्ष्य मिले हैं। गुफ्कराल कश्मीर में त्राल नामक स्थान के निकट स्थित है।

ताम्रपाषाण काल (Chalcolithic Period)

नवपाषाण काल के बाद ताम्रपाषाण काल शुरू हुआ। ताम्रपाषाण काल में धातुओं का उपयोग शुरू हुआ। इस काल में पत्थर के औजारों के साथ-साथ सर्वप्रथम ताम्बे के औजारों का उपयोग भी किया जाने लगा।

नवपाषाण काल की समाप्ति के पश्चात् ताम्रपाषाण काल का आरम्भ हुआ, जैसा की नाम से स्पष्ट है इस काल में ताम्बे से बने हुए औज़ार अस्तित्व में आये। इस काल में धातुओं का उपयोग आरम्भ हुआ और सबसे पहले उपयोग की जाने वाली धातु ताम्बा थी। इसी कारण इस काल का नाम ताम्रपाषाण काल पड़ा। इस दौरान कई संस्कृतियाँ अस्तित्व में आई, ताम्बे का उपयोग करने के कारण इस संस्कृतियों को ताम्रपाषाणिक संस्कृतियाँ कहा जाता है। ताम्रपाषाण काल में कृषि में काफी बदलाव आये, इस समयकाल में गेहूं, धान, दाल इत्यादि की खेती की जाती थी। महाराष्ट्र के नवदाटोली में फसलों के सर्वाधिक अवशेष प्राप्त हुए हैं, यह ताम्रपाषाण से सम्बंधित सबसे बड़ा ग्रामीण स्थल है, जिसकी खुदाई पुरातत्वविदों द्वारा की गयी।

ताम्रपाषाण काल में कला व शिल्प का काफी विकास हुआ, इस दौरान हाथी दांत से बनी कलाकृतियाँ, टेराकोटा की कलाकृतियाँ व अन्य शिल्प सम्बन्धी कलाकृतियों का निर्माण किया गया। ताम्रपाषाण काल में मातृदेवी की पूजा की जाती थी और बैल को धार्मिक प्रतीक चिह्न माना जाता था। चित्रित मृदभांड का प्रयोग सर्वप्रथम ताम्रपाषाण काल में आरम्भ हुआ।

इस काल में जिन संस्कृतियों का उदय हुआ व जिन संस्कृतियों द्वारा ताम्बे का उपयोग किया गया, उन्हें ताम्रपाषाणिक संस्कृतियाँ कहा जाता है, कुछ ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों का सक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है : –

मालवा संस्कृति    

मालवा संस्कृति का अनुमानित समय काल 1700 ईसा पूर्व से 1200 ईसा पूर्व है, इस संस्कृति में मालवा मृदभांड का उपयोग प्रचलित था, यह मृदभांड ताम्रपाषाणिक संस्कृतियाँ में सर्वोत्तम थे।

जोरवे संस्कृति

जोरवे संस्कृति का समयकाल 1400 से 700 ईसा पूर्व था, यह संस्कृति ग्रामीण थी इसकी दैमाबाद और इनामगाँव बस्तियों में सीमित नगरीकरण था। इस संस्कृति का सबसे बड़ा स्थान दैमाबाद था। इनामगाँव बस्ती किलाबंद थी और यह खाई से घिरी हुई थी। खुदाई के दौरान इस संस्कृति में 5 कमरे वाले घर के अवशेष मिले हैं।

अहाड़ संस्कृति

अहाड़ संस्कृति का समयकाल 2100 से 1800 ईसा पूर्व है, इसे ताम्बवती भी कहा जाता है। अहाड़ संस्कृति में लोग पत्थर से निर्मित घरों में निवास करते थे। गिलुन्द इन संस्कृति का केंद्र था। अहाड़ से कुल्हाड़ियाँ, चूड़ियाँ व चादरें इत्यादि प्राप्त हुई हैं, यह सभी वस्तुएं ताम्बे से बनी हैं।

कायथा संस्कृति

कायथा संस्कृति का समयकाल 2100 से 1800 ईसा पूर्व है। कायथा संस्कृति में स्टेटाइट और कार्नेलियन जैसे कीमती पत्थरों से गोलियों के हार प्राप्त हुए हैं। मालवा से चरखे और तकलियाँ, महाराष्ट्र से सूत और रेशम के धागे, कायथ से मनके के हार प्राप्त हुए हैं, इस आधार पर यह कहा जा सकता है की ताम्रपाषाण के लोग कताई बुने और आभूषण कला के बारे में जानते थे।

उपरोक्त संस्कृतियों के अलावा रंगपुर संस्कृति 1500 से 1200 ईसा पूर्व अस्तित्व में थी। प्रभास संस्कृति 1800 से 1200 ईसा पूर्व व सावल्द संस्कृति 2100 से 1800 ईसा पूर्व में अस्तितिव में थी।

महापाषाण संस्कृति

पत्थर की कब्रों को महापाषाण कहा जाता था, इसमें मृतकों को दफनाया जाता था। यह प्रथा दक्कन, दक्षिण भारत, उत्तर-पूर्वी भारत और कश्मीर में प्रचलित थी। इसमें कुछ कब्रे भूमि के नीचे व कुछ भूमि के ऊपर होती थी। कुछ एक कब्रों से काल एवं लाल मृदभांड प्राप्त हुए हैं। मृतकों के शवों को जंगली जानवरों के भोजन के लिए छोड़ दिया जाता था, उसके बाद बची हुई अस्थियों का समाधिकरण किया जाता था। भारत में ब्रह्मागिरी, आदिचन्नलूर, मास्की, पुदुको और चिंगलपुट से महापाषाणकालीन समाधियों के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

पाषाण युगीन संस्कृतियाँ के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण तथ्य

समयकालसंस्कृति की पहचानस्थान/क्षेत्रविविध तथ्य
निम्न पुरापाषाण कालशल्क, गंडासा, खंडक उपकरण इत्यादिपंजाब, कश्मीर, सोहन घाटी, सिंगरौली घाटी, छोटानागपुर पठार, कर्नाटक व आंध्र प्रदेशहस्त कुठार एवं वटीकाश्म उपकरण
मध्य पुरापाषाण कालफलक संस्कृतिनेवासा (महाराष्ट्र), डीडवाना (राजस्थान), नर्मदा घाटी, भीमबेटका (मध्य प्रदेश), बाँकुड़ा, पुरुलिया (पश्चिम बंगाल)फलक, बेधनी, खुरचनी आदि उपकरणों की प्राप्ति
उच्च पुरापाषाण कालअस्थि, खुरचनी एवं तक्षणी संस्कृतिबेलन घाटी, छोटानागपुर पठार, मध्य भारत, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेशहोमो सेपियन्स का आरंभिक काल, हारपुन, फलक एवं हड्डी के उपकरण की प्राप्ति
मध्य पाषाण कालसूक्ष्म पाषाण संस्कृतिआदमगढ़, भीमबेटका (मध्य प्रदेश), बागोर (राजस्थान), सराय, नाहर राय (उत्तर प्रदेश)सूक्ष्म पाषाण, उपकरण निर्माण तकनीक का विकास, अर्द्धचंद्रकार उपकरण, चित्रकला का साक्ष्य, पशुपालन
नवपाषाण कालसंशोधित उपकरण संस्कृतिबुर्ज़होम व गुफ्कराल (कश्मीर, लंघनाज (गुजरात), दमदमा, कोल्डिवा (उत्तर प्रदेश, चिरौन्द (बिहार) पैयमपल्ली (तमिलनाडु), ब्रह्मागिरी, मास्की (कर्नाटक)प्रारंभिक कृषि संस्कृति, कपडे की बुनाई, भोजन पकाना, मृदभांड निर्माण, स्थाई निवास का निर्माण, पाषाण उपकरणों का संशोधन व आग का उपयोग

 

 

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