स्वकर्म करते हुए भगवद्भक्ति में पराकाष्ठा को छूने का प्रमाण परमभक्त रैदास से बड़ा कोई अन्य नहीं हो सकता । रैदासजी का जन्म भगवान विश्वनाथ की पवित्र नगरी काशी में हुआ था ।
इनके बारे में कुछ विद्वानों का मत है कि यह पूर्वजन्म में ब्राह्मण के घर में पैदा हुए थे । किसी कारणवश गुरु रामानंदजी ने इन्हे श्राप दिया जिसके फलस्वरूप इन्हें चमार के घर जन्म मिला । चूंकि पूर्वजन्म में यह भगवान के परमभक्त थे इसलिए भगवान की कृपा से इन्हें अपने पूर्वजन्म का ज्ञान रहा ।
इन्होंने जन्म से ही माता का दूध नहीं पिया । बिना गुरुमंत्र के कुछ भी ग्रहण न करने का इन्होंने सकल्प लिखा था । इधर भगवान को अपने भक्त के संकल्प पर दया आ गड् नवजात शिशु यदि दुग्धपान भी न करेगा तो कैसे जीवित रहेगा ? उन्होंने उसी क्षण स्वामी रामानद जी को स्वप्न में दर्शन दिए ।
”आपने जिस ब्राह्मण को कठिन श्राप दिया था वह चमार कुल मैं जन्म ले चुका है । उसने जन्म से ही गुरुमंत्र के बिना दुग्धपान न करने का सकल्प किया है । अब आप उसके पास जाकर उसे गुरुमंत्र दें ।” भगवान ने उन्हें आदेश दिया रामानंदजी रश्चण चर्मकार के घर पहुंचे और नवजात शिशु को देखा ।
उन्होंने शिशु का नाम ‘रैदास’ रखा और उसके कान में गुरुमंत्र दिया । रैदास का सकल्प पूरा हुआ । जब रैदास कुछ बड़े हुए तो वह साधु सेवा में लग गए । जो कुछ भी घर में मिलता वह दीन-दुखियों को दे देते । कुछ समय बाद इनका विवाह कर दिया गया परतु इन्हें तो भगवद्भजन में अधिक आनंद आता था ।
जब पिता ने इनका आचरण देखा तो इन्हें परिवार से अलग कर दिया । यद्यपि इनके पिता के पास बहुत धन था परंतु पिता ने क्रोधवश इन्हें कुछ भी नहीं दिया । दास पत्नी सहित घर के पीछे एक कमरे में रहने लगे । जीवन निर्वाह के लिए इन्होंने अपना पुश्तैनी कार्य प्रारम्भ कर दिया ।
वे जूतियां बनाने लगे । जब भी किसी साधु या फकीर को देखते कि उसके पैरों में जूते नहीं हैं वे उसे बिना कुछ लिए जूते पहना देते । इन्होंने एक छप्पर डाल रखा था, उसी में भगवान की मूर्ति स्थापित कर ली और उसकी पूजा-अर्चना करते रहते ।
भगवान इनकी भक्ति से प्रसन्न हुए और इनकी दरिद्रता दूर करने के विचार से साधु वेश में इनके घर आए । रैदासजी ने उन्हें दण्डवत करके भली प्रकार उनकी सेवा की । साधु इनकी सेवा और भक्ति भाव से प्रसन्न हुए और अपने कमंडल से पत्थर निकालकर इन्हें दिया ।
”भक्त, यह पारस पत्थर है । इसे जिस वस्तु से भी स्पर्श करा दोगे वह वस्तु स्वर्ण बन जाएगी । इसे बड़े यत्न से रखना और इसका प्रयोग बड़ी सावधानी से करना ।” साधु ने कहा । ”महाराज मुझे स्वर्ण-धनादि से क्या लेना है । मेरे पास तो केवल रामनाम का धन ही पर्याप्त है ।” रैदास ने सहज स्वर में कहा ।
साधु रूपी भगवान चले गए । कुछ दिनों बाद रैदास को अपनी पिटारी में पाँच स्वर्ण मुहरें मिलीं । अब वह भगवत्भजन से भी भयभीत होने लगे । तब एक दिन प्रभु ने उन्हें स्वप्न में दर्शन देकर स्नेह-स्वर में समझाया ।
”भक्त मैं जानता हूं कि तुम्हारे अंदर लोभ विकार नहीं है परंतु हम जो देते हैं उसे ग्रहण किया करो ।”
भगवान की आज्ञा पाकर रैदास ने भगवान से प्राप्त धन स्वीकार तो किया परंतु वह स्वहित में इसका उपयोग नहीं करते थे । इन्होंने उस धन से एक सुंदर विशाल धर्मशाला बनवाई और भगवद्भक्तों को ला-लाकर उसमें बसाया ।
धर्मशाला के अदर ही इन्होंने एक अति सुदर मंदिर का निर्माण किया और इसे अति सुंदर सजाया । जब वहां के ब्राह्मणों एक चर्मकार की ऐसी शान और प्रसिद्धि देखी तो उन्हें ईर्ष्या हो उठी । एक साधारण चमार और कर्म ब्राह्मणों जैसा तत्काल ब्राह्मण मिलकर राजा के पास पहुंचे ।
”महाराज, आपके राज्य में घोर पाप हो रहा है और आप निश्चिंत बैठे हैं । यह अशुभ संकेत हैं ।” ब्राह्मणों ने कहा । ”ऐसा क्या हुआ ब्राह्मणो ।” राजा घबरा गया । ”हमारे धर्मशास्त्रों में कहीं भी किसी शूद्र के द्वारा भगवान की पूजा का कोई लेख नहीं जलता । परंतु आपके राज्य में रैदास चमार मंदिर में भगवान की पूजा कर रहा है ।
उसने निर्भय होकर मंदिर का निर्माण कर लिया है । हे राजन ! वह शूद्र समाज को दूषित कर न्ह है अत: उसे दंड दिया जाए ।” राजा ने ब्राह्मणों के प्रभाव में आकर रैदास को बुला भेजा । रेंदास आए तो सभी ब्राह्मण भी वहीं थे ।
”तुम शूद्र होकर भगवान की पूजा क्यों करते हो?” राजा ने कहा । ”महाराज, जातिभेद तो सांसारिक वर्गीकरण है । भगवान की दृष्टि में जाति रंग और गोभेद नहीं है ।” रैदास ने सहज उत्तर दिया । ”यह गलत है ।” ब्राह्यण चीखकर बोले: ”ईश्वर कभी शूद्र की पूजा नहीं मानता । इससे उन्हें केवल कष्ट होता है ।”
”श्रेष्ठ ब्राह्मणो मैं इस बात को नहीं मानता ।” रैदासजी ने कहा: ” आप सब निरर्थक आधारहीन बात कह रहे हैं । इस बात में कोई सत्यता नहीं है । यदि है तो प्रमाण दो ।” ”तुम इस बात का प्रमाण दे सकते हो कि भगवान जाति भेद नहीं केवल भक्ति भाव ही देखते हैं?” ब्राह्मण ने कहा ।
”यह तो केवल भगवान ही कर सकते हैं ।” ”फिर क्या है । यहां सिंहासन पर भगवान की मूर्ति विराजमान है । तुम अपनी भक्ति से भगवान द्वारा सिद्ध कराओ ।” ”यह न्याय नहीं होगा ।” राजा ने कहा: ”दोनों पला को अपनी बात सिद्ध करनी चाहिए ।
जो भी पक्ष अपने भाव से भगवान को अपने समीप बुला लेगा वही सच्चा होगा ।” पहले ब्राह्मणों को अवसर दिया गया । ब्राह्मणों ने समवत् स्वर में भगवान की स्तुति की । तीन पहर तक वेद पढ़ा परतु कुछ भी नहीं हुआ । ब्राह्मण निराश होकर बैठ गए । फिर रैदास की बारी आई ।
”हे पतित पावन यह उच्चकुली ब्राह्मण आपकी भक्ति और दया में भी भेदभाव करते हैं । हे नाथ आप इन्हें बताइए कि आपने व्यक्ति की वग या जाति नहीं दी ।” रैदास ने प्रार्थना की । इनकी प्रार्थना में वेदना थी । ऐसी करुण पुकार सुनकर सर्वेश्वर कैसे मौन रह सकते हैं ? सिंहासन पर विराजमान मूर्ति उठ खड़ी हुई और चलकर रैदासजी की गोद में बैठ गई ।
समस्त राजदरबार आश्चर्यचकित हो गया । ब्राह्मण ते लज्जा से आखें चुराने लगे । राजा और रानी ने रैदास को अपना गुरु मान लिया । ब्राह्मण अभी भी अपनी मानसिकता पर अडिग थे । ”ब्राह्मणो मैं भी पूर्वजन्म में ब्राह्मण था । अपने गुरु ऊ श्राप से मैंने यह जन्म लिया है ।
जन्म से कोई ब्राह्मण या चमार नहीं होता । आपको अपनी सत्यता सिद्ध करने के लिए मैं अपनी चमड़ी इस देह से उतारता हूं ।” रैदासजी ने अपनी देह से चमड़ी उतारकर अपना यज्ञोपवीत दिखाया । सब इनके प्रति श्रद्धा से भर उठे और इनका शिष्यत्व ग्रहण कर लिया ।
रैदासजी जीवन-भर साधना पथ पर चलते रहे । इनके लाखो शिष्य इन्हें उच्च कोटि का विरक्त सत कहते थे । उच्च भक्ति पद प्राप्त रैदासजी न अपनी अनन्य साधना से जीवन-मृत्यु का चक्र काट दिया और अपने निजधाम जाकर पुन: जन्म लेने के नियम से छूट गए ।