प्रयोजन-सापेक्षता के इस आधुनिक युग में सभी कुछ परस्पर संबंद्ध और सापेक्ष है। आधुनिक ज्ञान-विज्ञान ने मानव-जीवन को सुखी और समृद्ध बनाने के लिए जो ढेर सारे अविष्कार किए हैं, उनमें से दूरदर्शन आज सर्वाधिक लोकप्रिय सर्वसुलभ अविष्कार है। इसके घर-घ्ज्ञक्र तक पहुंच जाने के कारण अब रेडियो और सिनेमा का महत्व काफी कुछ घट गया है। दृश्य-श्रव्य घरेलु माध्यम एंव उपकरण होने के कारण इसने बिना किसी शोर-शराबे के रेडियो और सिनेमा के कलात्मक मनोरंजन तो ग्रहण कर लिया है। यह हमें विभिन्न स्तर और प्रकार के कलात्मक मनोरंजन तो प्रदान करता ही है, शिक्षांए देकर जीवन को अधिकाधिक उपयोगी और समर्थ बनाने में भी सहायक है और हो सकता है। तभी तो आज इसे शिक्षा का मनोरंजक माध्यम और साधन कहा जाने लगा है। परंतु क्या वास्तव में ऐसा हो पा रहा है? आज का यह एक ज्वलंत प्रश्न उत्तर चाहता है। दूरदर्शन पर कुछ शिक्षण-प्रशिक्षण संबंंधी प्रयोग चल भी रहे हैं। जैसे कि हम सभी जानते हैं कि आज दूरदर्शन पर विभिन्न कक्षाओं के लिए समयवार विभिन्न विषयों के पाठ सुयोज्य अध्यापकों द्वारा प्रसारित किए-कराए जाते हैं। संबंधित छात्र अपने-अपने घरों स्कूलों में सामूहिक रूप से बैठकर उन कक्षा-विषयक पाठों को न केवल ध्यान से सुनकर, बल्कि प्रत्यक्ष घटित होते देखकर ग्रहण करते हैं। निश्चय ही इस प्रकार किसी विष्ज्ञय का पाठ सही रूप में समझ तो आ ही जाता है, दिल-दिमाग में बैठकर पूर्णतया याद भी हो जाता है। उसे घोटने या माथापच्ची करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। इस प्रकार दूरदर्शन के माध्यम से दूर-दराज के उन स्थानों पर भी लोगों को कक्षावार शिक्षा दी जा सकती है, जहां अभी तक स्कूल-कॉलेज नहीं खाले जा सके। स्कूल-कॉलेज खोलने के लिए स्थान और साधनों का अभाव है। ऐसे स्थानों पर कोई एक-आध ऐसा स्थान या समुदाय भवन आदि तो बनाया ही जा सकता है कि जहां निश्चित समय पर बैठकर इच्दुक लोग शिक्षा प्राप्त कर सकें। सेटेलाइट के द्वारा शिक्षा का जो कार्यक्रम चलाया गया था, उसके लिए ऐसे ही स्थानों की व्यवस्था भी की गई थी, जो शायद निहित स्वार्थी और अदूरदर्शी संचालक वर्ग के कारण अधिक चल नहीं पाई। यह तो हुई दूरदर्शन के माध्यम से स्कूली या किताबी शिक्षा की बात जो उतनी मनोरंजक नहीं हुआ करती। इसका मुख्य प्रयोजन भी साक्षरता के प्रचार द्वारा लोगों को जागरुक बनाने तक सीमित रहा करता है। या फिर स्कूलों-कॉलेजों में पढ़ाए जा रहे विषयों की पुनरावृति करना-कराना ही हुआ करता है। इसके अतिरिक्त भी बहुत सारे क्षेत्र और विषय हैं, जन-जागरण के लिए जिनको शिक्षा दी जानी बहुत आवश्यक और उपयोगी है। उसके लिए किताबी या स्कूलों जैसी शिक्षा की जरूरत नहीं, बल्कि कल्पनाशील मनोरंजक कार्यक्रमों की ही आवश्यकता हुआ करती है। खेती-बाड़ी, रोग-उपचार, रोजगार के साधन ओर सहूलतें आदि के बारे में अब भी विशेषज्ञों को बुलाकर इन सबका या इन जेसे अन्यान्य विषयों का दूरदर्शन पर प्रत्यक्ष्श और व्यावहारिक ज्ञान कराया ही जाता है। हमारे समाज में जो अनेेक प्रकार की कुरीतियां हैं, अंधविश्वास, हीनतांए और कुनीतियां हैं, अन्याय और अत्याचार हैं, शोषण और दबाव हैं-उन सबके बारे में भी मनोरंजक कार्यक्रम प्रस्तुत किए जा सकते हैं।इससे मनोरंजन और शिक्षा-दोनों काम एक साथ संपादित किए जा सकते हैं। एक सीमा तक अब इस प्रकार के कार्यक्रम प्रसारित किए भी जाते हैं, पर उनमें सहज कल्पनाशीलता का अभाव खटकने वाली सीमा तक रहा करता है। सांप्रदायिकता, प्रांतीयता, दहेज-प्रथा, जाति-प्रथा, ऊंच-नीच, छुआछूत आदि कई प्रकार के सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक-नैतिक, राजनीतिक आदि विषय हैं, जिनके कुप्रभावों से समाज का और उसके माध्यम से सारे देश और राष्ट्र को बचाना, वास्तविकता का ज्ञान करना आवश्यक है। इसके लिए जानकार, योज्य, कल्पनाशील और कलात्मक रुचियों वाले लोगों का सहयोग प्राप्त कर अच्छे संतुलित, मनोरंजक और ज्ञानवर्धक कार्यक्रम बनाकर प्रदर्शित-प्रसारित किए जा सकते हैं। निश्चय ही भाषण या किताबी बातों का व्यक्ति के मन-मस्तिष्क पर उतना गहरा प्रभाव नहीं पड़ता, जितना कि प्रत्यक्ष देख ओर कानों से सुनकर। दूरदर्शन से अच्छा इसके लिए अन्य कौन-सा माध्यम या साधन हो सकता है? नेताओं के चित्र दिखाने के स्थान पर यदि इस प्रकार रंजक कार्यक्रम दिखाए जांए, तो कितना अच्छा हो। अभी तक हमारे देश का दूरदर्शन जन-शिक्षण तो क्या पूरी तरह से जनरंजन के कार्य में भी सफल नहीं हो सकता है। समाचार-पत्रों और आपसी बातचीत में उसके कार्यक्रमों को शुष्क, नीरस और कल्पना-विहीन कहकर तीखी एंव खरी आलोचना अक्सर की जाती है। मनोरंजन के नाम पर वहां फिल्में और चित्रहार ही विशेष प्रचलित-प्रशंसित हैं। कभी-कभार कोई शिक्षाप्रद और मनोरंजक नाटक भी आ जाता है। शिक्षा के नाम पर या तो कक्षाओं में पाठयक्रम प्रसारित किए जाते हैं या कुछ विशेषज्ञ बुलाकर उनसे बातचीत कर ली जाती है, जो अक्सर समायाभाव के कारण अधूरी ही रह जाया करती है। अत: आवश्यकता इस बात की है कि कल्पनाशीलता के काम लेकर दूरदर्शन को वास्तविक स्तर पर शिक्षा का मनोरंजक साधन और माध्यम बनाया जाए। ऐसा तभी संभव हो पाएगा, जब लाल फीताशाही से छुटकारा पाकर यह माध्यम कल्पनाशील और दूरदर्शी हाथों द्वारा संचालित होने लगेगा। अन्यथा चलने को तो सब चलता ही है और अब भी ज्यों-त्यों करके चल ही रहा है।