दूरदर्शन यानी टेलिविजन एक दृश्य-श्रव्य उपकरणों के मिश्रण से बना घरेलू उपकरण है। घरेलू इसलिए कि झोपड़ी से लेकर राजभवन तक सभी जगह आज मुक्त रूप से इसका व्यापक उपययोग हो रहा है। लोग दूरदर्शन को मनोरंजन का एक सबसे सस्ता साधन और घरेलू सिनेमा तक भी कहते हैं। इसमें संदेह नहीं कि यह मनोरंजन का सबसे सस्ता, बल्कि आजीवन मुफ्त में प्राप्त होने वाला साधन है। पर क्या इसके निर्माण एंव उपयोग का प्रयोजन मात्र मनोरंजन की सामग्री प्रस्तुत करना ही है? निश्चय ही एक विचारणीय प्रश्न है। जब हम उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर खोजने लगते हैं, तो कई प्रकार के लाभ-हानि मूलक तथ्य हमारे सामने स्वत: ही उभरकर आने लगते हैं। दूरदर्शन निस्संदेह आज मात्र ऐय्याशी का उपकरण न होकर जीवन की एक अपरिहार्य-सी आवश्यकता बन चुका है। अत: इसक ाउपयोग मनोरंजन के लि एतो किया ही जा सकता या जा रहा है, भारत जैसे विकासोन्मुख देश में जन-शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए भी किया जा सकता है। कहा जा सकता है कि जन-शिक्षण-प्रशिक्षण के कार्य भी समान्य स्तर पर, सामान्य रूप से भारतीय दूरदर्शन पर अवश्य किए जा रहे हैं। पर क्या उनका स्वरूप, समय और संख्या आदि वास्तव में उपयोगी एंव पर्याप्त हैं? ऊतर ‘नहीं’ ही हो सकता है। हम एक उदाहरण से इस ‘नहीं’ की वास्तविकता स्पष्ट करना चाहेंगे। सबसे पहले कृषि-दर्शन जैसे देहाती कार्यक्रम को ही लीजिए। इसके लिए प्राय: नित्य ही विशेषज्ञ बुाए जाते हैं। अच्छी बात है। वे लोग कृषि एंव कृषकोपयोगी आवश्यक, अच्छी-अच्छी बातें बताते हैं। पर होता यह है कि उनकी बातें पूरी नहीं हो पातीं कि कोई दूसरा कार्यक्रम प्रारंभ कर दिया जाता है। प्राय: यह व्यवधान उन सभी कार्यक्रमों में पड़ते देखा-सुना जा सकता है कि जिनका प्रसारण जन-शिक्षण एंव ज्ञान-वद्र्धक के लिए किया जाता है। दर्शक एंव श्रोता तल्लीनता से ऐसे कार्यक्रम देश-सुन रहा होता है कि उन्हें तोडक़र अक्सर फिल्मी का कोई कार्यक्रम प्रसारि किया जाने लगता है। कितना दुखद पहलू है यह हमारे दूरदर्शन महोदय का? इसे हम नियोजकों, अधिकारियों की अदूरदर्शिता, कल्पना-शून्यता और इस सबसे बढक़र अयोज्यता ही कह सकते हैं? अब दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले तथाकथित मनोरंजक कार्यक्रमों की बात लीजिए। मनोरंजन के नाम पर वेन-केन प्रकारेण मात्र सिनेमा एंव सिनमाई अंदाज ही दूरदर्शन पर छाया हुआ है। वह भी हा प्रकार से घटिया, स्तरहीन, अश्लील, नज्न एंव जीवन की वास्तविकताओं से कोसों दूर रहने वाला। उसमें भारतीय सभ्यता-संस्कृति, भाषा सभी की खुली भद्द उड़ रही होती है। उलटे आज के मनोरंजक कार्यक्रम, मनोरंजन के नाम पर अपसंस्कृति का प्रचार घर-घर में पहुंचा रहे हैं। सपने और कल्पनांए बेच रहे हैं। वहां मारधाड़, शराबखोरी, भ्रष्टाचार और उसके तरीके खुले रूप से दिखाए एंव बताए जा रहे हैं। एक इस प्रकार के हीरोइज्म का प्रचार किया जा रहा है जो नाम मात्र को भी वास्तविक या व्यावहारिक न तो हुआ करता एंव न हो ही सकता है? उस सबका प्रभाव हमारे किशोर एंव युवा वर्ग पर कैसा पड़ रहा है, समाचार-पत्रों में अक्सर पढऩे को मिलता रहता है। इससे प्रभावित एक किशोर ने छत से कूदकर जान दे दी। नशाखोरी तो हजारों ने सीखी और सीख रहे हैं। छुरेबाजी और चोरी-चकारी सीखने वालों को भी कभी नहीं। इस प्रकार दूरदर्शनी मनोरंजन छक कर हिंसा एंव भोंडेपन का प्रचार-प्रसार कर रहा है। फिल्मों के अतिरिक्त दूरदर्शन पर अनेक धारावाहिक भी दिखाए जाते हैं। खेद के साथ स्वीकारना पड़ता है कि उनका स्तर भी बहुत गिरा चुका है। आरंभ में दिखाए गए धारावाहिक अवश्य हमारी सामाजिकता का अनेक प्रकार से सही चित्रण करते रहे पर आज? आज वे भी फिल्मों की तरह या तो कपोल-कल्पित और सफे बेचने वाले होते हैं, या फिर उच्च वर्गों की गंदगी एंव अंडरवल्र्ड की कारगुजारियों का चित्रण कर हिंसा एंवा चारित्रिक भ्रष्टता का प्रसार करन ेवाले ही होते हैं। संस्कृति में अपमिश्रण करने का बहुत बड़े कारण और साधन बन रहे हैं या दूरदर्शनी धारावाहिक एंव इस प्रकार के कार्यक्रम। जिसे सहज मानवीय सहदयता, सुरूची संपन्नता, आनंदोत्साह का स्वाभाविक उद्रक कहा जाता या कहा जा सकता है। उस सबका अभाव खटकने वाली सीमा से भी कहीं आगे तक विद्यमान है। भारत जैसे विकास की राह पर अग्रसर देश का दूरदर्शन वास्तव मं प्रगति एंव विकास को यथातथ्य उजागर करने वाला होना चाहिए। वह बेकारी, महंगाई, अराजकता के विरुद्ध शंखनाद कर सकने की शिक्षा एंव शक्ति प्रदान करने वाला होना चाहिए। वह बेकारी, महंगाई, अराजकता के विरुद्ध शंखनाद कर सकने की शिक्षा एंव शक्ति प्रदान करने वाला होना चाहिए। उसका साक्षरता का प्रचारक-प्रसारक बनाया जाना जरूरी है। वह जन-मन में न ई चेतना, स्वावलंबन और स्वाभिमान को जागृत कर सके, ऐसे कार्यक्रम उस पर प्रसारित-प्रदर्शित करना आवश्यक है। दूरदर्शन ऐसा सशक्त माध्यम है कि उसके द्वारा हर प्रकार से अपनी सभ्यता-संस्कृति एंव अपनेपन को बढ़ावा दिया जा सकता है। भारतीयता का तूर्यनाद विश्व के कोने-कोने तक पहुंचा पाना संभव है। पर नहीं, हमारा दूरदर्शन, ऐसा कुछ भी न कर मात्र सपनों की सौदागरी कर रहा है। अपनी सभ्यता-संस्कृति तो क्या अपने भाषा-भूषा और देश को बेच खाना चाहता है? आज राष्ट्रभाषा को सर्वाधिक प्रदूषित करने वाला, उसक ेसाथ भद्दा मजाक करने वाला सबसे सशक्त माध्यम दूरदर्शन ही प्रमाणित हो रहा है। भाषा को इसने एक अपच-अपथ्य खिचड़ी बनाकर रख दिया है। ऐसे स्वप्रिल और लुभावने कार्यक्रम प्रस्तुत कर रहा है। यह दूरदर्शन कि छोटे बच्चे तक इसी से चिपके रहना चाहते हैं। उससे इनके स्वास्थ्य, शिक्षा एंव दृष्टि का सर्वनाश होता है, तो उस पर जो एक ही प्रोडक्ट के कई-कई विज्ञापन लुभावने ढंग से दिखाए जाते हैं, उनका समाज पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, सोचने की बात है। क्या वास्तव में वे देश का सही दिशा में निर्माण करना चाहते हैं पर फिर भावी पीढिय़ों तक को खोखला बनाकर रख देना चाहते हैं? इस सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय दूरदर्शन अपने वास्तविक उद्देश्य से कतई भ्रष्ट हो चुका है। आम जन के साथ, वास्तविक निर्माण के साथ उसका दूर का भी नाता नहीं रह गया। वह मात्र ऐसी दूधारू गाय है सरकार एंव उसके कर्ता-धर्ताओं के लिए कि जिससे दूध पाने की चिंता तो उन्हें है, पर उसके स्तनों से लिपटकर रस चूस रही जोंकों को हटाने की तरफ कभी ध्यान ही नहीं गया।