मेरा नाम गंगा है, पतित-पावनी गंगा ! मेरे किनारे पर बसे हुए अनेक तीर्थ-स्थान एक ओर मेरी महिमा के गीत गाते है तो दूसरी ओर अपनी पवित्रता के कारण जन-जन के मन को पावन कर देते है | जैसे सूर्य उदयकाल में घने अंधकार को विदीर्ण करके प्रकाशित होता है, उसी प्रकार गंगाजल में स्नान करने वाला पुरुष अपने पापो को नष्ट करके सुशोभित होता है वेदों के अनुसार मैं देवताओ की नदी हूं | एक दिन देवलोक से उतरकर मुझे पृथ्वी पर आना पड़ा | गंगा की उज्जवल धारा पृथ्वी पर कैसी सुशोभित हो रही है इसका वर्णन निम्न पक्तियो में किया गया है नव उज्जवल जलधर हार हीरक-सी सोहति | बिच-बिच छहरति बूंद मध्य मुक्त-मनि पोहति | | लोल लहर लहि पवन एक पै एक एमि आवत | जिमि नर-गन मन विविध मनोरथ करत मिटावत | | 2. धरती पर आने की महान कथा — मेरे धरती पर आने की कहानी भी अतयंत रोचक व् रोमांचित है | प्राचीन काल में अयोध्या में सगर नाम के एक प्रसिद्ध चक्रवती राजा थे | उन्होंने 100 अश्वमेध यज्ञ पुरे कर लिए थे | अंतिम यज्ञ के लिए जब उन्होंने श्याम रंग का अश्व छोड़ा तो इंद्र का सिहासन हिलने लगा | सिंहासन छीन जाने के भय से इंद्र ने उस अश्व को चुराकर कपिल मुनि के आश्रम में जाकर बांध दिया | राजा सगर ने अपने साठ हजार पुत्रो को अश्व की खोज में भेजा | काफी खोजने पर अश्व को कपिल मुनि के आश्रम में बंधा देखकर राजकुमारो ने महर्षि को चोर समझकर उनका अपमान किया | क्रोधित होकर मुनि ने सभी राजकुमारों को अपने शाप से भस्म कर दिया | राजा सगर के पौत्र अंशुमान ने कपिल मुनि को प्रसन्न किया, और अपने चाचाओं की मुक्ति का उपाय पूछा | मुनि ने बताया की जब स्वर्ग से गंगा भूलोक पर उतरेगी और राजकुमारों की भस्म का स्पर्श करेगी, तब उनकी मुक्ति सम्भव है | इसके बाद अंशुमान ने घोर तप किया, किन्तु वे सफल न हो सके | इसके पश्चात उनके पुत्र दिलीप का अथक श्रम भी व्यर्थ गया | तदनन्तर दिलीप के पुत्र भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न होकर मैं पृथ्वी पर आयी और इसलिए मेरा नाम भागीरथी पड़ा | 3. मेरा उद्गम स्थल — हिमालय की गॉड में एक एकांत स्थान पर छोटी-सी घाटी बन गई है | इस घाटी के चारों और ऊँचे-ऊँचे पर्वत शिकार है | यही एक गुफा है जिसे गोमुख कहते है | गोमुख का अर्थ है _गाय अथवा धरती का मुख | यह गुफा काफी ऊँची और चौड़ी है | कभी-कभी इसके किनारो से बर्फ के बड़े-बड़े टुकड़े टूटकर गिरते है और मैं अपने तेज बहाव में उन्हें बालू मिश्रित और ले जाती हु | जैसे-जैसे बर्फ पिघलती है, छोटी-छोटी नदिया बन जाती है और निचे जाकर मुझमे मिल जाती है | 4. मेरा यात्रा-पथ —गाती नाचती कूदती हुए मेरी धारा अब गंगोत्री के पास से गुजरती है | यह स्थान समुन्द्र की सतह से 6,614 मीटर ऊँचा है | धीरे-धीरे मैं आगे बढ़ती हूं और देवप्रयाग में मुझमे अलकनन्दा का मिलन होता है जहा मैं अपने पिता हिमराज की गोद से उतरती हूँ, वह हरिद्धार का पुण्य तीर्थ बन गया है | हरिद्धार हजारो किलोमीटर यात्रा करती हुए,प्रयाग और काशी के तटों को पवित्र बनाती हुई मेरी धारा बंगाल तक पहुँचती है | यहाँ श्री चैतन्य महाप्रभु का जन्म-स्थान और वैष्णवों का प्रसिद्ध तीर्थ ‘नदिया ‘ है | इसी नगर के पास मेरा न्य नामकरण हुआ है —हुगली | यहाँ मेरे दोनों किनारो पर नगर बेस हुए है | एक ओर कोलकाता बसा है तो दूसरे किनारे पर हावड़ा | यहाँ पर हुगली नदी के मुहाने के पास दक्षिण से आकर दामोदर नदी मुझमे मिल जाती है | यह मिलन-स्थल बड़ा मनोरम है | मेरी कहानी बहुत लम्बी है | मन्दाकिनी, सुरसरि, विष्णुनदी, देवापगा, हरिनदी, भागीरथी आदि मेरे अनेक नाम है | मेरी स्तुति कालिदास, भवभूति, भारवि, वाल्मीकि, तुलसी आदि की लेखनी ने लिखकर अपने को धन्य समझा है | 5. उपसंहार —इस प्रकार प्रकृति के महान प्रतीक हिमालय के विस्तृत हिम-शिखरों से उदित होकर भारत के विशाल वक्ष पर मुक्तामाला के समान लहराती हुई, मैं भागीरथी गंगा भारत की प्रवहमान संस्कृति की पवित्र प्रतिक हूँ | तुलसीदास ने मेरे बारे में कहा है —”दरस परस अरु मज्जन पाना | हरहि पाप कह वेद पुराना’