क्षत्रपति शिवाजी
क्षत्रपति शिवाजी इतिहास पुरुष हैं । भारत के इतिहास में उनका नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है । वो महावीर होने के साथ-साथ महान गुरु भक्त भी थे ।
यह सच हें कि यदि किसी के व्यक्तित्व में शुद्ध सोने-सा निखार आता है तो उसके पीछे किसी पारसमणि का हाथ अवश्य है शिवाजी के जीवन में वो पारसमणि थे समर्थ गुरु रामदास । विरक्तों-सा जीवन-जीने वाले बाबा रामदास देखने में जितने साधारण थे उनकी अंतरआत्मा में परमज्ञान की उतनी विलक्षण ज्योति प्रज्वलित थी ।
उन्होंने ‘दासबोध’ जैसे महान ग्रंथ की रचना करके अपने विलक्षण ज्ञान का परिचय दिया । जब गुरु रामदास की शिवाजी से भेंट हुई तो उन्हें उस मानवप्रतिमा में सोई पड़ी प्रबल ऊर्जा का आभास हुआ उन्होने शिवा को आपने शिष्य स्वीकार किया । इस प्रकार एक समर्थ गुरु की देखरेख में उनकी शिक्षा आरंभ हुई ।
बालक शिवा पूर्ण लगन के साथ द्वारा दिए जाने वाले ज्ञान का अमृत पान करने लगा । दासबोध ग्रंथ में वर्णित दिव्य दिव्य ज्ञान का प्रसाद भी शिवाजी को मिला । गुरु ने अपनी दूरदृष्टि से जान लिया था कि शिवा को शास्त्र ज्ञान के अलवा शस्त्र ज्ञान की भी आवश्यकता पड़ेगी, इसलिए शिवाजी को शस्त्र संचालन का ज्ञान भी दिया जाने लगा ।
अपनी एकाग्रता और गुरु पर पूर्ण श्रद्धा रखने के कारण शिवाजी ने शीघ्र ही शास्त्रों और शस्त्रो का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया लेकिन फिर भी शिवा की जिज्ञासा शांत न होती थी और शिवाजी की उसी जिज्ञासा के कारण गुरु भी अपना सम्पूर्ण ज्ञान अपने शिष्य में अड़ेल देना चाहते थे ।
गुरु रामदास को अपने योग्य शिष्य शिवा जी की निष्ठा पर कोई संदेह तो नहीं था फिर भी वो शिवा की एक परीक्षा लेना चाहते थे । एक सुबह उन्होने अपने सभी शिष्यों को पुकारा और कहा कि अब कुछ दिन वो उन्हें शिक्षा न दे सकेंगे क्योंकि उनके पांव में एक भयंकर फोड़ा उग आया है ।
जो पकने के कारण भीषण पीड़ा दे रहा है । गुरु रामदास के पांव में पट्टी बंधी थी । पांव फूला-फूला और भयंकर-सा दिखाई दे रहा था । कुछ शिष्य तो इतने डर गए कि रोने लगे कुछ ने मुंह फेर लिया और कुछ ने साहस करके गुरु से पूछा : ”आप तो सामर्थवान हैं गुरुदेव इस फोड़े से छुटकारा पाने का कोड तो उपाय अवश्य जानते होंगे ।”
गुरु ने एक आह भरी और कहा : ”नहीं वत्स इसका कोई उपाय मैं जानता होता तो अवश्य ही इससे छटकारा पा चुका होता । लगता है ये मेरे द्वारा पूर्व जन्म में किए गए किसी अपराध का फल है ।” ”गुरुदेव! क्या हम आपकी कोई सहायता कर सकते हैं ।” शिवा ने उत्सुकता से पूछा : ”हां-हां गुरुदेव हमें भी बताइए हम आपका कष्ट दूर करने का पूर्ण प्रयत्न करेंगे ।” अन्य शिष्य भी आगे बढ़कर बोले ।
गुरु रामदास बोले : ”हाँ वत्स एक उपाय तो है परंतु वह बहुत मुश्किल है । उसे मैं बताना तो नहीं चाहता था परतु तुम सब जब इतना पूछ रहे हो तो बताता हूं । यदि इस फोड़े का मवाद कोई अपने मुख से खींच कर निकाल दे तो मुझे निश्चित ही आराम मिल सकता है ।”
गुरु ने शिष्यों के आग्रह पर पीड़ा से छुटकारा पाने का उपाय बताया । अब उनकी नजर सहायता के लिए अपने शिष्यों पर थी । सभी शिष्य एक दूसरे का मुख ताक रहे थे किसी से कोई उत्तर देते न बन रहा था । गुरु ने पुन : पूछा : ”क्या तुममें से कोई मुझे पीड़ा से मुक्ति दिला सकता है या फिर मैं विश्राम के लिए चला जाऊँ ।”
”मैं दिलाऊंगा आपको पीड़ा से मुक्ति । मैं अपने मुख से खींच कर निकालूंगा आपको पीड़ा देने वाला ये मवाद ।” शिवा ने पूर्ण आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़कर कहा । गुरु रामदास को शिवा से ऐसी ही आशा थी उन्होंने तुरंत अपना पाव आगे किया और फोड़े से थोड़ी-सी पट्टी हटाकर शिवा से कहा : ”लो वत्स अब देर न करो मुझे असहनीय पीड़ा हो रही है ।”
शिवा ने आंख मुंदकर ईश्वर से प्रार्थना की और गुरु के चरण स्पर्श करके उस घाव में अपना मुख लगा दिया । ये क्या उस फोड़े पर मुख लगाते ही शिवा हैरान रह गया वो मवाद नहीं आम का रस था । उसके गुरु ने अपने शिष्यों की परीक्षा लेने के लिए एक पके आम को अपने पैर पर बाध लिया था ।
शिवा ने आश्चर्य भरी दृष्टि से जब गुरु की ओर देखा तो उनकी आखों से प्रेमाश्रु छलक रहे थे उन्होंने शिवा को अपने हृदय से लगा लिया और कहा : ”वत्स तूने मेरी दी हुई शिक्षा को सार्थक कर दिया, मैं तुझे अशीर्वाद देता हूं कि इस नश्वर संसार में तेरी कीर्ति अमर हो जाएगी, तेरा नाम इतिहास में स्वर्ण-अक्षरों में लिखा जाएगा ।”
गुरु का आशीर्वाद शिवाजी के जीवन में फलीभूत हुआ उनमें निर्भीकता अन्याय से मुकाबला करने की क्षमता और संगठनात्मक योगदान का विकास गुरु की कृपा से ही आया । शिवाजी ने अन्याय के विरुद्ध लड़ने का फैसला किया उनके नेतृत्व में जो लड़ता वो साक्षात शिव का रूप नजर आता था । उनके सधे हुए आक्रमणों से शत्रु थर्रा उठता था ।
शिवाजी के युद्ध का उद्देश्य रक्तपात नहीं अन्याय का अत करके शांति स्थापित करना था जिसमें उन्हें इच्छित सफलता प्राप्त हुई और वो शिवा से छत्रपति शिवाजी बन गए । अब शिवाजी सम्पूर्ण मराठा साम्राज्य के एक मात्र अधिपति थे ।
शिवाजी की विजय यात्रा की सूचना यदा-कदा उनके गुरु के कानों तक पहुंचती रहती थी । एक बार उनके गुरु भिक्षा लेने उनके साम्राज्य में पहुंचे और भिक्षा के लिए आवाज लगाई । चिरपरिचित आवाज सुनकर शिवाजी आदोलित हो गए वो सब काम छोड्कर द्वार पर पहुंचे और गुरु के चरणों में गिर पड़े । गुरु रामदास ने उन्हें उठाया और कहा:
”शिवा! अब तू मेरा शिष्य नहीं एक सम्राट है मैं तो भिक्षा की आशा लेकर यहा आया था क्या मुझे कुछ भिक्षा मिलेगी ।” गुरु का आग्रह सुनकर एक पल को तो शिवाजी स्तब्ध रह गए । उन्हें लगा कि उनके गुरु ने उनकी किसी अंजानी भूल के कारण उनका त्याग तो नहीं कर दिया ।
”किस सोच में पड़ गए राजन”: गुरु रामदास ने पुन: कहा: ” क्या मुझे कुछ भिक्षा मिलेगी ।” गुरु की वाणी ने शिवाजी की तंद्रा भंग की । ”हां गुरुदेव मैं अभी आया”: शिवाजी तुरंत अपने कक्ष में गए और एक कागज का टुकड़ा लेकर लौटे और गुरु के भिक्षापात्र में डाल कर बोले: ”मैं आपको क्या दे सकता हूं ये सब कुछ तो आप ही का दिया हुआ है ।”
शिवाजी ने गुरु को प्राणाम किया, गुरु उन्हें आशीर्वाद देकर आगे बढ़ गए । कुटिया में आकर रामदास ने उस पर्चे को पड़ा । उसमें लिखा था : ‘सारा राज्य आपको समर्पित है’ और उसके नीचे राजमूहर भी अंकित थी । समर्थ गुरु रामदास ने अपने शिष्य की देन की सराहना की और ईश्वर का धान्यवाद किया कि उनकी शिक्षा में कोई त्रुटि नहीं रही ।
शिवाजी ने केवल अपने गुरु को एक पत्र में चन्द लाइनें ही नहीं लिखी थीं उन्होंने उसी दिन से अपने गुरु की खड़ाऊ को सिंहासन पर आसीन कर दिया और गुरु के भगवाध्वज को अपने राज्य का राज्य-चिन्ह बना दिया । उस काल की मुद्रा पर भी शिवाजी के गुरु समर्थगुरु रामदास का चित्र देखा जा सकता है ।
एक बार शिवाजी को औरंगजेब ने उनके पुत्र के साथ बंदी बना लिया । कुछ महीने वे औरंगजेब की कैद में रहने के बाद भाग निकले । बाद में जब उनके साथियों ने उनसे पूछा कि : ”महाराज आप औरंगजेब जैसे क्रूर राजा के कैद से कैसे निकल पाए” तो उन्होंने मुस्कराते हुए कहा : ”कैद में बराबर मुझे समर्थगुरु रामदास की छाया नजर आती थी ।
जब मैंने भागने की तैयारी कर ली तो लगा कि गुरुवर मेरे सामने खड़े हैं और कह रहे हैं : शिवा तू डर मत निकल जा । जब मैं वहा से मिठाई के टोकरे में छिपकर निकलने लगा तो मुझे लगा कि गुरुदेव मेरे साथ हैं । सारे-पहरेदारों की आखों पर जैसे पर्दा-सा पड़ गया और मैं बाहर निकल गया ।”
ये एक समर्थ गुरु के समर्थ शिष्य की कहानी है जो सदियों तक एक वैरागी गुरु और एक त्यागी शिष्य की याद दिलाती रहेगी । सच तो यह है कि जिसे गुरु कृपा प्राप्त हो जाती है उसके लिए ससार के सारे साधन सुलभ हो जाते हैं । आग का तपता दरिया भी उसके लिए शीतल हो जाता है ।