एक सुखद छुट्टी
गर्मी की छुट्टियां। सभी को अच्छी लगती है| लेकिन मेरे लिए किसी वरदान से कम न थी| इन गर्मियों की छुट्टी में वो अपनी नानी के घर आती थी| उसके आते ही मेरी गर्मी की छुट्टियां शुरू होती | और उसके जाते ही खत्म| वैसे आमतौर पर बच्चों की गर्मी की छुट्टियां रिजल्ट आते ही शुरू हो जाती है| लेकिन मेरी परीक्षा खत्म हो जाती| रिजल्ट आ जाता| मैं अच्छे नंबरों से पास भी हो जाता| लेकिन मेरी छुट्टियां कब शुरू होगीं पता नहीं होता था| क्यों की वो रिजल्ट की तरह 30 अप्रैल को नहीं आती थी| लेकिन मई शुरू होते ही| मानो मुझे उसकी आहट सुनाई देने लगती थी| और उसका इंतजार मेरी दिनचर्या का हिस्सा होता था| दिन भर न जाने क्या क्या बहाने सोचता था| कि किसी न किसी तरह उसकी नानी के घर हो आंऊ| और तसल्ली कर लूं| उसकी नानी धार्मिक थी| यानि पूजा पाठ करती थी| मंदिर जाती थी| सो अपन को एक बहाना था| नानी को सुबह सुबह फूल दे आता| राम राम कर आता और इस बहाने पूरा घर खंगाल आता| मां से पूछ पूछ कर नानी को कभी अचार| कभी पापड़ और न जाने क्या क्या दिन भर उनको पहुंचाता रहता| कोई पता पूछने आए| तो घर तक ही पहुंचा आउ| या फिर शाम को उनसे रामायण या फिर महाभारत की कहानियां सुनने जाता था| लेकिन वो कहांनियां आधे मिनिट बाद ही उबाऊ हो जाती थीजैसे ही पता चलता कि एक दिन और खत्म हुआवो नहीं आई| फिर किसी दिन अचानक आम पर बौर की तरह वह चली आती | हर साल वह कुछ बदल सी जाती| शायद उसकी उम्र बड़ती जाती| वह फ्राक से सलवार सूट पर आ गईऔर फिर वह अपने दुपट्टे पर विशेष ध्यान देने लगी| वह उन जेठ की दोपहरी में सावन की तरह आकर मेरे आंगन में बरसती थी| और मेरी छुट्टियां शुरू हो जाती| नए नए खेल| नई नई बातेंनई नई कहानियां | जिंदगी ही जैसे चमेली की तरह महक उठतीटूटने| फूटने या गुमने के डर से | में पूरे दस महीने किसी के साथ भी कंचे नहीं खेलता था| उसे दिखाने के लिए साल भर में सील लगे डाक टिकिट जमा करता था तो कभी पुराने सिक्के| तो कभी माचिस की खाली डिब्बियां| या फिर चमकनी कागज| प्लास्टिक के रंगीन टुकडे| कुछ अजीब सी चीजें| जिन्हें वो अपने खेल में इस्तेमाल कर सकें| मैं साल भर जमा करता मैं पतंग उड़ाने के लिए हर समय सद्दी को माजां बनाता रहता था| हमारे शहर में मिलने वाला एक विशेष तरह का मिरचुन उसे पसंद था| उसके लिए पैसे जमा करना| उसे लाना और उसे खिलाना अपने लिए चारों धाम करने जेसा था| उसके घर में नल नहीं था| सो वो हमारे घर से पानी भरने आती थी| मैं इन दो महीनों में अपनी मां की मदद करता पानी भरने में| मेरी मां या तो इतनी सीधी थी| को वो मेरी इस मदद की मंशा कभी समझ ही नहीं पाई| या फिर इतनी समझदार कि उसने कभी जाहिर ही नहीं होने दिया| कि वो समझती है| शुरूआती दिनों में ही एक रोज उसके घर की दोपहर में ही बिजली चली गई| और में उसकी नानी को अपने घर ले आया| मेरे घर के बड़े से कूलर के सामने उसकी नानी मेरी दादी के साथ आराम करती रहीं| उसकी मां मेरी मां के साथ और हम सिर्फ बातें करते रहे| जाते वक्त उसने कह दिया कि कितना अच्छा होता कि अगर हमारे घर की लाईट रोज जाती| हम छोटे थे| लेकिन इतनी समझ न जाने कहां से आ गई थी| कि हर रोज उसके घर की लाइट दोपहर को चली जाती | और में उसकी नानी को अपने घर ले आता| नानी से कहता कि दादी ने बुलाया हैं| और दादी से कहता कि नानी को गर्मी लगती है| और दोनों लोगों ने कभी भी एक दूसरे से इस बारे में जिक्र नहीं किया दोपहर हमारी अच्छी कटने लगी| जैसे ही हमारे बुजुर्ग जागते उसके कुछ देर बाद ही उसकी लाईट आजाती और वह चाय के साथ ही विदा हो जाती है| हमारी छत एक थी| वो अपने भाई बहिनों में सबसे बड़ी और में अपने परिवार में| शाम होते ही हम अपनी छत पर पानी डालते और बिस्तर बिछा लेते फिर कहांनियां सुनाते| हमारे भाई बहिन कभी दो तो कभी चार कहांनियां तक जागते रहते| आखरी व्यकित के सोते ही हमारी कहानियों के पात्र बदल जाते| और फिर हम कई बार सुबह तक बतियाते ही रहते| वे दस महीने जो उसके इंतजार मे कटते| और वे दो महीने जो उसके साथ गुजरते| जिंदगी के इस चक्र में हमें कभी समझ में ही नहीं आया| न पता चल पाया| कि हम दोपहर में गुड्डी गुड्डी| राजा मंत्री चोर सिपाही और सांप सीड़ी खेलते खेलत| कब घर बसाने लगे| कब जिंदगीजिंदगी खेलने लगे| रात में सोते समय कहानिंया बदलते बदलते हम कब चिठ्ठियां बदलने लगे| हमारी जिंदगी गर्मियों की छुट्टियों में ही बढ़ने| संभलने| गुनगाने और नांचने लगी| लेकिन फिर एक गर्मी की छुट्टी वो नहीं आई| उसके पिता का पत्र आया मेरे पिता के लिए| वो भी हल्दी लगा| हुआ| मेरी आँखों ने सिर्फ हल्दी लगी ही चिठ्ठी देखी| बाकी कुछ भी छलक आए आसुंओं ने देखने नहीं दिया| गर्मी की छुट्टी शुरू होने से पहले ही उसकी नानी और नाना| शायद तैयारियों के लिए उसके शहर ही चले गए| वो नानी का घर जिससे मुझे पूरी गर्मी की छुट्टियां कभी मंदिर की आर्तियां तो कभी आजानें सुनाई देती थी| खंडर रहा | एक सन्नाटा पूरे घर पर पसरा रहा| और उसके बाद मेरी जिंदगी में न कभी वो आई और न गर्मी की छुट्टियां|