आतंकवाद
आतंकवादी का उद्देश्य अपनी समस्या के प्रति लोगों का ध्यान आकृष्ट करना होता है और इसके लिए वह निरपराध लोगों की हत्या एवं सम्पत्ति के नुकसान जैसे मार्गों का सहारा लेता है । वह अपने को अनाधिकृत युद्ध का योद्धा समझता है, जिसका उद्देश्य राजनीतिक होता है और सामान्यत: अपने पक्ष को वह मानवाधिकार से जोड़ने की कोशिश करता है ।
जाहिर है कि, आतंकवादी को अपने द्वारा अख्तियार किया गया रास्ता न्यायोचित लगता है । वैसे हमें इस पर किसी प्रकार का मंतव्य देने से पहले आतंकवादियों के मुद्दों एवं उनके कार्य करने के तरीकों का विश्लेषण कर लेना चाहिए।
आज, किसी-न-किसी रूप में विश्व के लगभग हर देश को आतंकवाद की समस्या का सामना करना पड़ रहा है । उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए आतंकवाद आज क्यों इतना लोकप्रिय माध्यम बनता जा रहा है ? इसके अनेक राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक कारण बताए जा सकते हैं, जिनकी वजह से आज कुकुरमुत्ते की तरह आतंकवादी संगठन पनपने लगे हैं ।
सत्तासीन सरकार किसी व्यक्ति या समूह की राजनीतिक इच्छा या महत्वाकांक्षा, जो कि सरकार से टकराती है, को गंभीरता से ले-इसलिए आतंकवादी द्वारा हिंसा का सहारा लिया जाता है । राजनीतिक असंतोष एवं द्वेष आजकल आतंकवाद में परिवर्तित हो जा रहा है, क्योंकि सत्ता पर काबिज व्यवस्था आज स्वयं भ्रष्ट होने लगी है ।
लगभग सभी प्रजातांत्रिक देशों में सविधानों के द्वारा सबको समान अधिकार देने की व्यवस्था की गई है, लेकिन अक्सर किसी वर्ग-विशेष के साथ भेदभाव होने जैसी बात देखी जाती है । कभी-कभी किसी कानून का सही तरीके से प्रयोग न करने के मामले भी होते हैं । संस्थाओं के अपराधीकरण से भी असंतोष बढ़ता है । एक हद तक, ये ही वे स्थितियां हैं, जो सामाजिक-आर्थिक असंतोष को जन्म देती हैं ।
ऐसे में, कोई आतंकवादी संगठन ‘आम जनता’ के हित में सामाजिक संरचना के पुनर्गठन एवं आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए राजनीतिक उद्देश्य निश्चित कर हिंसक गतिविधियाँ शुरू कर देता है । अपने समूह के आर्थिक एवं सामाजिक विकास की दलीलों से प्रभावित होकर आम आदमी भी आतंकवाद में लिप्त हो जाता है । भारत में आतंकवाद का लगभग यही स्वरूप है ।
कभी-कभी किसी मामले में आतंकवाद का कोई तर्कपूर्ण एवं न्यायोचित आधार भी हो सकता है, परंतु ऐसी स्थितियां बहुत कम देखने को मिलती हैं । ऐसे मामलों में भी आतंकवादी अपने मुद्दे के प्रति अविवेकपूर्ण तरीके से हिंसक हो उठता है और फिर अपनी हिंसा को भी उचित सिद्ध करने की कोशिश करता है । वह हिंसा को अपने प्रतिरोध का उपयुक्त माध्यम भी मान सकता है ।
आतंकवारदेयों को अक्सर ‘शहरी गुरिल्ले’, ‘प्रतिरोधी लड़ाके’, ‘क्रांतिकारी’ आदि नामों से भी पुकारा जाता है । परंतु आतंकवादी गुरिल्ला-युद्ध-प्रणाली की तरह शत्रु-क्षेत्र के पूर्ण विनाश का प्रयास नहीं करता, क्योंकि उसका उद्देश्य उसी में परिवर्तन लाना है और कभी-कभी उसे ही अधिकृत करना भी है ।
वह अपना निशाना किसी भी स्थान या व्यक्ति को बना सकता है, गुरिल्ला-पद्धति की तरह किसी खास व्यक्ति या स्थान या लक्ष्य को नहीं ।
आतंकवादी हत्यारे से उस बिंदु पर भिन्न होता है, जब वह एक सामूहिक उद्देश्य से हिंसा में संलग्न होता है । राजनीतिक हत्याओं का लक्ष्य किसी खास व्यक्ति को उसके व्यक्तिगत अपराध या संस्थागत अपराध के लिए दंडित करना होता है ।
जबकि हत्यारे का उद्देश्य किसी पदाधिकारी को उसके पद से हटाकर किसी दूसरे को बिठाने का हो सकता है, आतंकवादी का उद्देश्य बस उसे नुकसान पहुँचाना होता है । इस प्रकार, यद्यपि आतंकवादी गतिविधियों में हत्याएं भी हो सकती हैं, तथापि सभी हत्याएं आतंकवादी गतिविधियां नहीं समझी जा सकतीं ।
आतंकवादी अक्सर किसी हिंसा आदि की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले लेते हैं, जिसके पीछे उनका उद्देश्य अपना प्रचार करना होता है । कभी-कभी अपहरणों (व्यक्ति का या वायुयान आदि का) को भी गलती से आतंकवादी गतिविधियों में गिन लिया जाता है ।
इसका एक महत्वपूर्ण पहलू है कि अपहर्ताओं की मांग प्राय: धन आदि होती है और वे अपने को किसी संस्था आदि से जोड़ने का प्रयास नहीं करते । ऐसे प्रयास किसी आतंकवादी संगठन द्वारा भी धन प्राप्ति के लिए किए जा सकते हैं ।
यद्यपि आतंकवाद की परिभाषा में बलात् जैसी किसी भी चीज का समावेश नहीं किया जा सकता, तथापि आतंकवादी घटनाओं की प्रकृति में जोर-जबरदस्ती आ ही जाती है । आतंकवाद में हिंसा होती है, परंतु सिर्फ हिंसक स्वरूप के कारण आतंकवाद की निंदा नहीं की जा सकती ।
क्योंकि, हिंसा हमेशा आपत्तिजनक नहीं होती-किसी व्यक्ति या समूह द्वारा अपने अस्तित्व की रक्षा के प्रयास में, अपनी अस्मिता की रक्षा के प्रयास में हिंसा का प्रयोग उचित हो जाता है । हिंसा भी शक्ति का एक रूप होती है । परंतु, आतंकवादी हिंसा इसलिए अक्सर निंदनीय हो जाती है कि, उसके शिकार निरपराध आम नागरिक हो जाते हैं ।
आतंकवादी आम आदमियों को इसलिए अपना निशाना बनाते हैं, क्योंकि एक तो वे सहज सुलभ हैं और दूसरे, उनकी हत्या संभवत: उनकी अभिव्यक्ति के लिए बेहतर माध्यम है । इसके पीछे यह मत है कि जब आम लोग इस हिंसा के शिकार होंगे, तो शेष आम आदमी भी दहशत में आ जायेंगे, जिनकी संख्या अधिक है और उनकी दहशत सरकार या अन्य लक्षित प्राधिकार पर अधिक दबाव डालेगी ।
कभी-कभी आतंकवादी अपने पक्ष में कहते हैं कि जिन्हें निरीह कहा जाता है, वे वास्तव में निरीह या निरपराध नहीं होते-वे राज्य या सरकार को आर्थिक या राजनीतिक (निर्वाचन द्वारा) समर्थन देने के दोषी होते हैं ।
कभी-कभी उनका यह तर्क भी होता है कि चूंकि वे लोग उनकी मांगों के पक्ष में आवाज नहीं उठाते, इसलिए वे निरपराधी नहीं, बल्कि अपराधी हैं और दण्डनीय हैं । परंतु, इन तर्कों को गंभीरता से नहीं लिया जा सकता, क्योंकि किसी भी व्यक्ति विशेष को अपना पक्ष सुरक्षित रखने की पूरी आजादी होती है-विशेषकर किसी को समर्थन देने या न देने के मामले में ।
कभी-कभी आतंकवादी अपनी हिंसा की तुलना सीमा पर लड़े जाने वाले युद्ध से करते हैं और इसलिए उसे भी न्यायोचित बताते हैं । परंतु, यह तुलना उचित नहीं है । क्योंकि युद्धों का उद्देश्य थोड़ी हिंसा के द्वारा बड़ी जनसंख्या के जानमाल की रक्षा करना होता है, जबकि आतंकवादी हिंसा में ऐसी कोई बात नहीं होती ।
आतंकवादी जैसे ही हिंसक रास्ता अख्तियार कर लेता है, उसके उद्देश्यों का नैतिक आधार ही समाप्त हो जाता है । आतंकवादी आम जनता से बिना किसी चेतावनी या दया के क्रूरतापूर्वक जिंदगी का अधिकार छीन लेते हैं । अपने किसी अधिकार के लिए लड़ी जाने वाली लड़ाई के लिए किसी निरपराध व्यक्ति के जीवन के अधिकार को ढ़ाल बनाना कहाँ तक न्यायोचित कहा जा सकता है ?
यदि आतंकवादी अपने को मानवाधिकारों का योद्धा मानता है, तो पहले उसे मानव के जीवन का महत्व समझना चाहिए । अपने मानवाधिकारों की रक्षा के लिए दूसरों के मानवाधिकारों का हनन उचित नहीं है ।
ऐसे बहुत कम बिंदु हैं, जिन पर आतंकवादियों को न्यायोचित सिद्ध किया जा सके । जब राज्य स्वयं एक आतंकवादी संस्था का रूप ग्रहण कर ले, तब उसके विरुद्ध प्रतिक्रियात्मक आतंकवाद का औचित्य माना जा सकता है । परंतु, ऐसी स्थिति में भी आम आदमी की हत्या अनुचित ही समझी जाएगी-चाहे वह आतंकवादी राज्य द्वारा की जाए या आतंकवादी संगठन द्वारा ।
यदि कोई भी संगठन या संस्था अपनी बात कहने या अपना पक्ष रखने के लिए आम आदमी की हिंसा जैसे कायरतापूर्ण मार्ग का सहारा लेता है, तो वह किसी भी प्रकार के नैतिक या भावनात्मक समर्थन प्राप्त करने का अधिकारी नहीं रह जाता ।
हिंसा कभी-भी सकारात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं हो सकती, चाहे वह आत्महत्या ही क्यों न हो ! जब असंतुष्टों के पास आपसी बातचीत, अहिंसक सविनय अवज्ञा आदि जैसे मार्ग उपलब्ध हैं, तब उनके द्वारा सीधे आतंकवादी हिंसा का सहारा लेने को उचित नहीं ठहराया जा सकता ।
आतंकवादी अपने अधिकारों के प्राप्ति के अंधे प्रयास में दूसरों के अधिकारों का हनन आवश्यक समझने लगे हैं । हम लाख प्रकार से आतंकवाद के मुद्दों का विश्लेषण करें, उनके द्वारा अपनाए जा रहे तरीकों का औचित्य हम कभी सिद्ध नहीं कर सकते ।
यदि हम इसके ‘नैतिक’ पहलू को भी नजर-अंदाज कर दें, तो भी ‘व्यावहारिक’ दृष्टि से भी इसका कोई औचित्य सिद्ध नहीं होता, क्योंकि शायद ही आतंकवादी संगठन अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में कभी सफल होते हैं, सिवाय बड़े पैमाने पर हिंसा एवं विध्वंस करने के ।