नवजात शिशु का क्रंदन बाहरी दुनिया के प्रति उसकी प्रतिक्रिया की अभिव्यक्ति है । अभिव्यक्ति की इच्छा किसी व्यक्ति की भावनाओं, कल्पनाओं एवं चिंतन से प्रेरित होती है और अपनी-अपनी क्षमता के अनुरूप होती है ।
अपनी भावना या अपने मत को अभिव्यक्ति करने की आकांक्षा कभी-कभी इतनी प्रबल हो जाती है कि मनुष्य अकेला होने पर अपने-आपसे बातें करने लगता है । परंतु अभिव्यक्ति की निर्दोषता या सदोषता का सवाल तभी खड़ा होता है, जब अभिव्यक्ति संवाद का रूप ग्रहण करती है-व्यक्तियों के बीच या समूहों के बीच ।
विचारों का आदान-प्रदान मानव-सभ्यता की शुरूआत से ही जुड़ा हुआ है । विचारों के आदान-प्रदान से मानव का वैयक्तिक विकास तो होता ही है, समाज की सामाजिकता भी इसी से बनती है और उसका विकास भी होता है । वैसे, शायद ही कभी सभ्यता के इतिहास में अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता दी गई, यद्यपि हर युग में प्राधिकार ऐसे दावे करते रहे हैं ।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अभिप्राय दो प्रकार के संवादों से है-एक तो मीडिया के द्वारा सूचनात्मक और दूसरा व्यक्ति के स्तर पर विचारों या मतों का प्रकाशन ।
इसमें कोई संदेह नहीं कि सूचनाओं के स्वतंत्र प्रसार से समस्त राष्ट्र प्रगति के पथ पर अग्रसर होता है-विशेषकर आर्थिक एवं वैज्ञानिक प्रसंगों में । और, प्रजातंत्र में ‘प्रेस’ को एक सचेतक कहा गया है, जो समस्त राजनीतिक दुर्व्यापारों पर कड़ी निगरानी रखता है, प्रजातंत्र को सही दिशा देता है ।
प्रजातंत्र में प्रेस दोहरी भूमिका निभाता है-एक ओर वह किसी रचनात्मक प्रवृत्ति के निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाता है और जनमत से सरकार को परिचित कराता है तथा दूसरी ओर, सरकार की नीतियों एवं कार्यक्रमों से वह जनता को परिचित कराता है । यदि सरकार की नीतियां एवं कार्यक्रम राष्ट्रीय एवं सामाजिक हित में हैं, तो प्रेस के माध्यम से सरकार को जन-समर्थन भी मिलता है ।
परंतु, सूचनाओं के प्रस्तुतीकरण पर किसी न किसी प्रकार के पूर्वाग्रह चाहे वह राजनीतिक हो या प्रजातीय हो अथवा सामाजिक पूर्वाग्रह हो, के प्रभाव की संभावना रहती ही है । इसी से, कभी-कभी किसी ‘समाचार’ को दुर्भावना से प्रेरित घोषित कर दिया जाता है ।
प्रेस पर सेंसरशिप या संपादकीय विनियमन का प्रसंग मुख्यत: उन मुद्दों पर उठता रहा है, जिन पर सरकार की नीति की आलोचना की सबसे अधिक संभावना बनी रहती है ।
परंतु अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता तो संसार में कहीं है ही नहीं । हमारा संविधान भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो देता है, परंतु कुछ ‘हिदायतों’ के साथ कि उस अभिव्यक्ति का प्रभाव देश की एकता, अखण्डता एवं सम्प्रभुता पर नहीं पड़ना चाहिए; सामाजिक व्यवस्था या सौहार्द को ठेस नहीं पहुंचनी चाहिए, न्यायालय की अवमानना नहीं होनी चाहिए और अभिव्यक्ति दुर्भावनापूर्ण नहीं होनी चाहिए ।
कोई भी व्यक्ति गाली देने या किसी को अपमानित करने की स्वतंत्रता दिए जाने की वकालत नहीं कर सकता । परंतु किसी व्यक्ति के विचारों, दृष्टिकोणों एवं धारणाओं की अभिव्यक्ति की युक्तियुक्तता पर नियंत्रक उपाय लगाना बड़ा मुश्किल काम है । हर आदमी यह सोचता है कि उसके विचार स्वतंत्र हैं, किंतु क्या इन सभी स्वतंत्र विचारों की अभिव्यक्ति को स्वतंत्रता देना उचित होगा ?
यदि किसी व्यक्ति के विचार सामाजिक मान्यताओं एवं विश्वासों के विरूद्ध हैं और इससे सामाजिक स्वास्थ्य पर भी अत्यंत प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, तो निश्चित रूप से ऐसे विचारों की अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध लगाना चाहिए ।
परंतु यहां यह प्रश्न उठता है कि आखिर बुद्ध, महावीर ईसा मसीह, पैगम्बर मुहम्मद आदि के विचार भी तो सामाजिक मान्यताओं के प्रतिकूल थे, फिर प्रतिकूल विचारों के प्रति कैसा दृष्टिकोण होना चाहिए ?……… जाहिर है, जो आलोचना सामाजिक स्वास्थ्य के लिए लाभकर हो तथा उसकी अभिव्यक्ति में कोई बुराई नहीं हो, पर जो आलोचना केवल सामाजिक सौहार्द को बिगाड़ने के लिए पैदा की जाती है, उस पर प्रतिबंध तो लगना ही चाहिए ।
सामान्यत:, विश्वस्तर पर उदारवादियों एवं प्रगतिशील विचारकों का मुख्य विरोध कलात्मक अभिव्यक्तियों की स्वतंत्रता पर प्रहार के खिलाफ है । चाहे वह साहित्य पर प्रतिबंध के रूप में हो या फिल्म पर सेंसर के रूप में या किसी अन्य प्रकार की कलात्मक अभिव्यक्ति में ।
इसमें तो शायद कोई दो राय नहीं कि वीभत्स अश्लीलता एवं कूर हिंसा की अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध लगना ही चाहिए । परंतु शेष अन्य विचारों या धारणाओं के स्तर पर कोई प्रतिबंध उचित नहीं है-कलाकार को सर्जना की और दर्शक-पाठक को उनमें अपनी पसंद के चयन की छूट होनी ही चाहिए ।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इस पूरे विवाद में पूर्ण स्वतंत्रता के समर्थक ‘विस्तृत मानसिकता वाले समझे जाते हैं और इसके विरोधी पिछड़े, रूढ़िवादी और संकीर्ण मानसिकतावादी ।’ निश्चित रूप से समाज में आज दोनों ही श्रेणियों के लोग रूढ़िवादी नजर आते हैं ।
पूर्ण स्वतंत्रता के लिए हाय-तौबा मचाने वाले अभिव्यक्ति को बस एकपक्षीय मानने की भूल करते हैं और विरोधी अपनी भावनाओं को इतना महत्व दे देते हैं कि उनके लिए वह गले की हड्डी बन जाती है ।
आज सबसे बड़ी समस्या यह है कि कोई भी व्यक्ति समझौतावादी रुख अपनाता ही नहीं है-या तो कोई विचार पूरी तरह गलत सिद्ध किया जाता है या पूरी तरह सही । संवाद के दोनों पक्ष बिल्कुल दो समानांतर धाराओं में चलते हैं, सम्मिलन की कोई संभावना ही नहीं होती ।
या तो विरोध में मौत के फतवे जारी हो जाते हैं या समर्थन में लम्बी-चौड़ी बहस । मनुष्य आज सर्वत्र अपनी सहिष्णुता खोता जा रहा है । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति उदार दृष्टिकोण कभी-कभी एक अच्छी-खासी भोली-भाली जनसंख्या को फासीवादी बना देता है, साम्प्रदायिक बना देता हैं-गुमराह कर देता है ।
निश्चित रूप से ऐसी प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना ही चाहिए । अपने विचारों एवं धारणाओं के प्रति एक तर्कपूर्ण दृष्टिकोण तो रखना ही चाहिए, जैसे-हम अपने भाई-दोस्त से बहुत प्यार करें, यह अच्छी बात है; परंतु जब उनका किसी दूसरे से झगड़ा हो जाए, तो दूसरे के पक्ष को भी सुनने से प्यार कम नहीं हो जाता । यदि ऐसा ही दृष्टिकोण हम अपने विचारों के प्रति भी रखें, तो कोई विवाद ही नहीं होगा ।
वस्तुत: धार्मिक रूढ़िवाद एवं बौद्धिक रूढ़िवाद-दोनों ही विचारों की स्वस्थ अभिव्यक्ति में बाधक हैं । व्यक्ति को अपनी अभिव्यक्ति के प्रति खुद सतर्कता बरतनी चाहिए । जैसे, मनुष्य अपने चलने के अधिकार का प्रयोग कर समुद्र पर चलने या कुएं में गिरने की कोशिश नहीं करता; उसी प्रकार उसे अपनी अभिव्यक्ति के अधिकार का प्रयोग अपने को अनैतिक या धूर्त बनाने के लिए भी नहीं करना चाहिए ।
यदि इस तरह की प्रवृत्ति मनुष्य अपने अंदर विकसित कर ले, तो संसार की विभिन्न सरकारें अपना ज्यादा वक्त मानव-संसाधन के विकास में लगा सकेंगी । अभिव्यक्ति स्वातंन्य की निर्दोषता अथवा सदोषता कभी स्पष्टत: निरपेक्ष नहीं हो सकती-पूर्ण नहीं हो सकती ।
जो मानदण्ड आज की तारीख में उचित एवं प्रासंगिक हैं, वे कल भी उचित एवं प्रासंगिक हों-यह आवश्यक नहीं है । विचार बदलते हैं, दृष्टिकोण बदलते हैं, सामाजिक मानदण्ड बदलते हैं और यह काम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के द्वारा भी हो सकता है-इन्हें सामान्य ढंग से लेना चाहिए और यह संभवत: सही सोच है कि परिवर्तन हमेशा बेहतरी लाता है ।