समान्यतया भ्रष्टाचार को जीवन, समाज, जाति, धर्म, नीति और राजनीति के किसी वाद विशेष के साथ नहीं जोड़ा जा सकता। वह किसी भी क्षेत्र में जन्म लेकर पल, पनप कर फल-फूल सकता है। यह भी एक सर्वमान्य तथ्य है कि आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में यह भ्रष्टाचार नामक जीव सीना फैलाए निशंक एंव मुक्त भाव से विचर रहा है। अत: धर्म, समाज, नीति, राजनीति आदि किसी भी क्षेत्र में इसको भेंट-चढ़ाए बिना कोई भी व्यक्ति एक कदम भी नहीं चल सकता। फिर भी चरम सत्य यही माना और कहा जाता है कि भ्रष्टाचार वास्तव में लोकतंत्र की तो ओरस संतान है। लोकतंत्र में इसका जन्म स्वत: ही होकर इसे हर स्तर पर, हर प्रकार से फल-फूलकर विकास पाने का उचित अवसर पर्याप्त मात्रा में मिलता रहता है। इसी कारण आज सर्वश्रेष्ठ मानी जाने वाली लोतंत्री शासन-व्यवस्था सर्वाधिक भ्रष्ट, निकृष्ट और अग्राह्य मानी जाती है। जन-मानस इस व्यवस्था के विकल्प खोजने-पाने की दिशा में सुचेष्ट हो गया है। इधर लोकतंत्र और भ्रष्टाचार हैं कि दोनों एक-दूसरे के शब्द एंव पर्यायवाची बनकर रह गए हैं। लोकतंत्र में कहने के लिए तो ‘लोक’ या ‘जन’ की ही प्रधानता एंव महत्व हुआ करता है। पर विगत अनुभवों से देखने में यह आ रहा है कि इसमें सर्वाधिक दुर्गति यदि किसी की हो रही है तो वह जन कही ही हो रही है। लोकतंत्र में जन मा मूल्य एंव महत्व कभी यदि कुछ देर के लिए, वह भी निहित स्वार्थी और उपेक्षापूर्ण दृष्टि से अंकित भी किया जाता है, तो चुनाव के चौदह-पंद्रह दिनों ही। वह भी इसलिए कि उसका वोट ऐंठा और डकारा जा सके। उसके बाद निर्वाचित व्यक्ति, उनकी सरकारी, उनकी लंबी-चौड़ी सरकार कारकुनों को इस बात की कतई कोई चिंता नहीं रहा करता कि बेचारा ‘लोक’ या ‘जन’ कहां किस हालत में अपने दिन काट रहा है। अपने छोटे-छोटे काम करवाने के लिए भी उसे छोटे-बड़े सभी के सामने गिड़गिड़ाते हुए भी रिश्वत देने को विवश होना पड़ता है कि जिन्हें झपकी मारते ही कर देने के नेताओ ंद्वारा चुनाव के दिनों उनसे वायद किए गए होते हैं। सो लोकतंत्र में तंत्र तो अवश्य रहता है पर लोक की परवाह कतई नहीं की जाती। क्योंकि तंत्र पर बड़े-बड़े नाग-कुंडली मारे बैठे रहते हैंख् उसके आसपास अपनी लंबी जिब्हांए लपारेते मगरमच्छ घूमते रहा करते हैं। इसलिए ‘लोक’ या ‘जन’ वहां तक पहुंच नहीं पाता। लोकतंत्र में चुनावी व्यूह-चक्र में से निकलने के लिए तरह-तरह के तिकड़म की तिकड़मियों की आवश्यकता पड़ा करती है। इन्हें केवल अर्थ-बल से ही पाला जा सकता है। लांकतंत्र वादी चुनाव लडऩे वालों को पैसा बड़े-बड़े हवालाबाजों से चंदे के रूप में प्राप्त होता है। बस फिर क्या है? एक बाद चंदा-धन देकर देने वाले अगले पांच वर्षों तक बेचारे लोक का रक्त निचोडऩे रहने की खुली छूट पा लेते हैं। फलस्वरूप महंगाई के नाम पर आम जनता को वो गुमराह रख भ्रष्ट लोकतंत्र खुलेवदों लुटने ही देता है, दूसरी ओर बैंक घोटाले, प्रतिभूति घाटाले, बोफोर्स घोटाले, चारा घाटाले,, चीनी घाटाले, आवास घोटाले भी भीतर ही भीतर चलकर बेचारे ‘जन’ का चोषण-शोषण करते रहते हैं। इसी कारण तो आज राजनीति में भले लोगों का तो सर्वथा अकाल पडऩे लगा है जबकि तंदूरबाजो, चाकू-बंदूक बाजों या इस प्रकार के लोगों को शरण दे पाने में समथ्र लोगों का निरंतर आगमन हो रहा है। आज का निर्वाचित या निर्वाचन के लिए उत्सुक सदस्यों की सूचि उठाकर देखिए। आधे से अधिक ऐसे नाम मिलेंगे कि जो किसी-न-किसी तरह से दागी हैं। कइयों पर कत्ल तक के, चोरी-डकैती, राहजनी तक के, अपहरण आदि के मुकदमे चल रहे होंगे। इतना ही नहीं, ऐसा मजाक केवल लोकतं9 में ही संभव हो सकता है कि दस-बीस साल की सजा पाकर भोगने वाला व्यक्ति भी यहां चुनाव में खड़ा होकर जीत भी सकता है। यानि लोकतंत्र स्वंय तो भ्रष्ट होता ही है, इसका संविधान भी भ्रष्टों को, धर्म-समाज जातिवाद आदि को खुलकर खेलने की छूट दे दिया करता है। आज रिश्वतखोरी, भाई-भतीजावाद, काला बाजार, करवंचना, स्मगलिंग करना , मिलावटी माल बेचना, बिना टेंडर कुछ भी बांटकर अफसरों को मालामाल कर देना, बिना लिए-दिए रोगियों का उपचार और थानों में शिकायत तक न करना जैसी भ्रष्टाचारी बातें तो आम हो रह गई हैं। जब राष्ट्र के कर्णधार कहे जाने वाले लोग नोटों से भरी अटैचियां तक बिना डकार लिए हजम कर सकते हैं तो उनकी देखा-देखी करने वाले छोटों की तो बात ही क्या। सो स्पष्ट है कि कहने को तो भारत संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यह भी स्पष्ट है कि पिछले चार-पांच वर्षों में इस लोकतंत्र ने भ्रष्टाचार के सारे रिकॉर्ड भी तोड़ दिए हैं। यानी लोकतंत्र का अर्थ ही खुला भ्रष्टाचार बना दिया है। ऐसे में स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि इससे बचा कैसे जाए? हमारे विचार में लोकतंत्र की मूल अवधारणा तो वास्तव में अच्छी है। पर वह आज के भ्रष्ट मानसिकता वाले युग के अनुकूल कतई नहीं रह गई। इसलिए आज के सभी दलों के सभी-नेताओं को तो बदलने की जरूरत है ही, कठोर बनकर तंत्र का परिष्कार करना भी बहुत ही आवश्यक है। संविधान भी पुराना तथा अनेक छिद्रों वाला हो चुका है। आवश्यकता है कि ऐसे निस्वार्थ जन-नेताओं और कसे हुए संविधान की कि जो हर प्रकार के भ्रष्टाचार की धज्जियां उड़ा पाने में समर्थ हो। संभव है, ऐसा करके लोकतंत्र को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाई जा सके। यों लोक सीमित तानाशाही की बात भी करते हैं। यदि नेताजी सुभाषचंद्र बोस जैसा या सरदार पटेल जैसा व्यक्तित्व प्राप्त हो जाए, तो कुछ समय के लिए वह भी बुरा नहीं।