लाल बहादुर शास्त्री बहुत ही साधारण एंव सहज व्यक्तित्व के थे। वे तडक़-भडक़ से बहुत दूर रहते थे। उनमें बाह्य आडंबर नहीं के बराबर था। कोई भी व्यक्तिगत कठिनाई उन्हें उनके पथ से डिगा नहीं सकती थी। शास्त्रीजी का आदर्शन कल्पना की वस्तु नहीं था। उनके लिए उनका आदर्शन एक ऐसी प्रकाश-किरण के समान था, जो सदैव चलते रहने के लिए प्रेरित करता था। शास्त्रीजी मानवता की, भारतीयता की सतह पर सदैव खड़े रहे। इसलिए वे अपनों से कभी भिन्न प्रतीत नहीं हुए। उनकी सादकी हमें पूरी तरह आकृष्ट करती है। उनकी करुणा ठोस थी। उनका तेज तरल था। उनकी अनेक स्मृतियां जनमानस के मन में भरी पड़ी हैं। ऐसे महान व्यक्ति का जन्म 2 अक्तूबर 1904 को मुगलसराय में हुआ था। उनके परिवार में सुख-वैभव नाम मात्र का था। जब लाल बहादुर मात्र डेढ़ वर्ष के थे तब उनके पिताजी की मृत्यु हो गई थी। इस कारण बालक लाल बहादुर की शिक्षा-दीक्षा पर आगे चलकर कुप्रभाव पड़ा। उनकी प्रारंभिक शिक्षा वहीं की एक साधारण सी पाठशाला में हुई थी। सन 1915 में लाल बहादुर ने गांधीजी को पहली बार वाराणसी में देखा था। उस समय उनकी अवस्था मात्र 11 वर्ष की थी। अंत में सोलर वर्ष की अवस्था में ही गांधीजी के आह्वान पर वे जेल चले गए थे। यह सन 1920 की घटना है। वहां से सन 1921 में वापस आने पर उन्होंने काशी विद्यापीठ में पुन अध्ययन प्रारंभ किया था। वहीं पर आचार्य नरेंद्रदेव, डॉ. भगवानदास, उनके सुपुत्र श्रीप्रकाश, डॉ. संपूर्णानंद और आचाय्र कुपलानी के संपर्क में आने का उन्हें सौभाज्य प्राप्त हुआ। काशी विद्यापीठ से ‘शास्त्री’ की उपाधि ग्रहण करने के बाद उनका जीवन ‘सर्वेंट्स ऑफ द पीपल्स सोसाइटी’ की सेवा में बीतने लगा। लाला लाजपत राय का वरदहस्त लाल बहादुरजी के सिर पर था। यह सन 1926 की बात है। सन 1927 में उनका विवाह ललिताजी के साथ हुआ। उनके छह संताने हुई-चार पुत्र एंव दो पुत्रियां। शास्त्रीजी शरीर से क्षीण होते हुए भी लौह संकल्पवाले राजनेता था। आचरण विनम्र और कोमल होते हुए भी शास्त्रीजी का मस्तिष्क और उनकी दृष्टि अत्यंत तीव्र थी। यह गुण दुर्लभ होता है। अपने नौ वर्षों के जेल-जीवन में शास्त्रीजी ने मुस्कुराना सीखा। क्रोध करना तो वे जानते ही नहीं थे। हां, उनके कोमल व्यक्तित्व के भीतर शक्ति का ज्वालामुखी छिपा हुआ था। यह ज्वालामुखी उस समय प्रकाश में आया, जब पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया। यह ठीक था कि शास्त्रीजी शांति के प्रमी थे, पर वह शांति को समर्पण का पर्याय नहीं मानते थे। सच्चे अर्थों में शास्त्रीजी आत्मनिर्मित व्यक्ति थे। उनके राजनीतिक जीवन पर गोविंद बल्लब पंत और पंडित नेहरू का अधिक प्रभाव था, किंतु पुरुषोत्तमदास टंडन से वे अत्याधिक प्रभावित थे। वे जनता के सुख-दुख से सुपरिचित थे। उनकी जनप्रियता का यह सबसे बड़ा कारण था। उनका निधन इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। 11 जनवरी 1966 में ताशंकद में अचानक उनका स्वर्गवास हो गया। युद्ध और शंाति के नेता के तौर में देश ने जिस राजनेता को अत्याधिक गौरव प्रदान किया, वे शास्त्रीजी ही थे। महत्वपूर्ण ऐतिहासिक अंतर्राष्ट्रीय वार्ता में गौरवपूर्ण कार्य पूरा करके वे विश्व में प्रतिष्ठा और गौरव के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचे थे। उनकी मृत्यु के पूर्व 10 जनवरी 1966 की प्रात: ही भारत- पाकिस्तान के बीच रूस के एक नगर ताशंकद मेें समझौता हुआ। उस पर भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अय्यूब खां ने हस्ताक्षर किए। जय-परजय का वातावरण सदभाव के पगचाप में ढक गया। दोनों देशों के नेता यों गले मिले जैसे दोनों बिछुड़ी आत्मांए मिल रही हों। संसार भर में खुशी के साथ यह समाचार सुना गया। यह भारत के इतिहास की अविस्मरणीय घड़ी थी, जो चिर-स्मरणीय हो गई। क्योंकि उसी तारीख को रात्री के समय शास्त्रीजी का देहांत हो गया।