भारत में जनसंख्या का एक बड़ा वर्ग अशिक्षित है, जिसके दृष्टिकोण में शिक्षा ग्रहण करने से अधिक आवश्यक है धन कमाना, जिससे बाल श्रम को बढ़ावा मिलता है| बड़ा और संयुक्त परिवार होने से परिवार के कम ही लोगों को रोजगार मिल पाता है, फलस्वरूप बच्चों को काम करने के लिए विवश होना पड़ता है| इसके अतिरिक्त समाज के स्वार्थी तत्वों और गलत तरीकों से आर्थिक हितों की पूर्ति करने वाले व्यावसायिक संगठनों के द्वारा जान-बूझकर प्रतिकूल स्थिति पैदा कर दी जाती है, ताकि उन्हें सस्ती मजदूरी पर बिना विरोध के काम करने वाले बाल श्रमिक आसानी से मिल जाए| भारत के संविधान में बालश्रम को रोकने या हतोत्साहित करने के लिए विभिन्न व्यवस्थाएँ की गई है जैसे 14 वर्ष से कम आयु के किसी बालक को किसी कारखाने में काम करने के लिए या किसी जोखिम वाले रोजगार में नियुक्त नहीं किया जाएगा (धारा -24), बाल्यावस्था और किशोरावस्था को शोषण तथा नैतिक एवं भौतिक परित्यक्ता से बचाया जायेगा (धारा -39 Af ), संविधान के प्रारंभ होने से 10 वर्षो की अवधि में सभी बालकों की, जब तक वे 14 वर्ष की आयु पूर्ण नहीं कर लेते हैं, राज्य निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था करने का प्रत्यन करेगा (धारा -39 AF) आदि| वर्ष 1949 में सरकार द्वारा विभिन्न सरकारी विभागों के साथ-साथ अन्य क्षेत्रों में भी श्रमिकों के कार्य करने की न्यूनतम आयु 14 वर्ष निर्धारित की गई| भारत सरकार ने वर्ष 1979 में बालश्रम समस्याओं से संबंधित अध्ययन हेतु गुरुपाद स्वामी समिति का गठन किया, जिसके सुझाव पर बालश्रम अधिनियम 1986 लागू किया गया| यह पहला विस्तृत कानून है, जो 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को व्यवस्थित उद्योगों एवं अन्य कठिन औद्योगिक व्यवसायों:- जैसे बीड़ी, कालीन, माचिस, आतिशबाजी आदि के निर्माण में रोजगार देने पर प्रतिबंध लगाता है| वर्ष 1987 में राष्ट्रीय बालश्रम नीति तैयार की गई, जिसके अंतर्गत जोखिम भरे व्यवसायों में कार्यरत बच्चों के पुनर्वास पर जोर दिया गया| वर्ष 1996 में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए उस फैसले ने बालश्रम के विरुद्ध कार्रवाई में अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसमें संघीय एवं राज्य सरकारों को जोखिम भरे व्यवसायों में काम करने वाले बच्चों की पहचान करने, उन्हें काम से हटाने एवं शिक्षा प्रदान करने का निर्देश दिया गया था| केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा 28 अगस्त 2012 को बालश्रम अधिनियम, 1986 में संशोधन को मंजूरी दी गई| वास्तव में, हम यह सोचते हैं कि इस तरह की समाज की कुरीतियों को समाप्त करने का दायित्व सिर्फ सरकार का है| सब कुछ कानूनों के पालन एवं कानून भंग करने वालों को सजा देने से सुधारा जाएगा, लेकिन यह असंभव है| हमारे घरों में, ढाबों में, होटलों में अनेक श्रमिक मिल जाएंगे जो, कड़ाके की ठंड या तपती धूप की परवाह किए बगैर काम करते हैं| सभ्य होते समाज में या अभिशाप आज भी क्यों बरकरार है? क्यों तथाकथित सभ्य एवं सुशिक्षित परिवारों में नौकरों के रूप में छोटे बच्चों को पसंद किया जाता है| हमें इन सब प्रश्नों के उत्तर स्वयं से पूछने होंगे| हमें इन बच्चों से बालश्रम न करवाकर इन्हें प्यार देना होगा, जिनके लिए विलियम वर्ड्सवर्थ ने कहा था “द चाइल्ड इस द फादर ऑफ द मैन” अर्थात बच्चा ही व्यक्ति का पिता है| हमें भी निंदा फाजली की तरह ईश्वर की पूजा समझकर बच्चों के दुख को दूर करना होगा| आज हम 21वीं सदी में विकास और उन्नति की ऐसी व्यवस्था में जी रहे हैं, जहां समानता, धर्मनिरपेक्षता, मान्यता आदि की चर्चा बहुत जोर-शोर से की जा रही है|